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श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन प्रथ
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की अपेक्षा मैंने तुमसे कभी नहीं रखी और एक विशिष्ट मेहमानोचित सुख-सुविधाओं का मैं तुम्हारे लिए सदैव सावधानीपूर्वक ध्यान रखता रहा । क्या उसका यही परिणाम ! मुझे तुमसे ऐसी आशा नहीं थी । "
विविध
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रत्नविजयजी का मन मौजूदा साध्वाचार व यति-धर्म की शिथिलताओं से परिक्षुब्ध तो था ही वे अब अधिक वक्तव्य सुनने को तैयार न थे । उनकी आत्मा तड़प उठी । जीभ कुछ प्रत्यत्तर देना चाहती थी; किन्तु ओठोंने उसे वैसा करने नहीं दिया । श्रीपूज्य धरणेन्द्र सूरि बोलते गए, "मैं हूं जो निभाए जा रहा हूं । अन्यथा इस पद के लिए अनेक सुयोग्य शिष्य हर घड़ी हाथ बांधे चरणों में खड़े रहते हैं । " व्यंग्योक्तिपूर्ण कटाक्ष करते हुए वे और आगे बोलते गए, " श्री पूज्यपद के स्वप्न तो दूर, अगर कहीं अन्यत्र दफ्तरीपद पर भी साल भर निभजाओ तो पता चले । शिथिलाचारी यति-समाज के सुधार के लिए चिंतित रत्न विजयजी इस अप्रत्याशित आह्नान के लिए प्रस्तुत न थे । सुधार-संकल्प स्थगित रहा । अनिच्छा रहते हुए भी उन्होंने निश्चय किया कि मुझे श्रीपूज्य भी अवश्य बनना चाहिए और तब धनमुनिजी व प्रमोदरुचिजी नामक दो मुनियों को साथ लेकर वे तत्क्षण वहां से चल दिए । घाणेराव से आहोर जाकर श्रीप्रमोदसूरिजी से सब बात निवेदित की। आचार्य देव ने आपको सब प्रकार से योग्य समझ कर आचार्यपद प्रदान किया ! आहोर के ठाकूर ने भक्तिपूर्वक वन्दन सह छड़ी, चामर, पालखी आदि सब श्रीपूज्य योग्य उपकरण भेंट देकर अपने को धन्य माना !
आचार्य पदारूढ होने के पश्चात् आप मरु, मेवाड़ में विचरण कर मालव में पधारे। दिन- महिने, चातुर्मास संवत्सर व्यतीत होते गए । परन्तु रत्नविजयजी के अलग हो जाने से धरणेन्द्रसूरिजी के समुदाय में जो सुव्यवस्था थी वह न रही । धरणेन्द्र सूरि जो अब तक रत्नविजयजी पर सारा उत्तरदायित्त्व छोड़कर कार्यभार से निश्चिन्त रहा करते थे अब सारा कार्य उन्हें स्वयं सम्हालना पड़ा । पराए भरोसे कार्यभार छोड़ने वालों पर जब आ पड़ती है तब ऐसा ही हुआ करता है । उन्हें अपने आप परं क्षोभ हुआ । रत्नविजयजी का अभाव अब उन्हें खटकने लगा । धरणेन्द्र सूरिजी ने पश्चात्तापपूर्वक पत्र भेजकर रत्नविजयजी को जो अब श्री राजेन्द्र सूरि बन गए थे, अपने पास बुला भेजा । श्री राजेन्द्र सूरिजी अखाड़े बनाने थे । उन्हें परम्परा का मनोमालिन्य भी वे इसी घड़ी की प्रतीक्षा में थे । दफ्तरीपद भी जब उन्हें था तो भला श्री पूज्य-पद में उनकी आत्मा कैसे सुख अनुभव करती ? अंगूठी उतार कर बेड़ी पहनना कौन पसन्द करे ? सिर्फ चुनौति - पूर्ति हेतु ही उन्हें यह रूपक रचना पड़ा था । उत्तर में श्री धरणेन्द्रसूरिजी को सविनय क्षमा-याचना करते हुए प्रचलित शिथिलाचार के निरसन हेतु उन्होंने नौ प्रतिबन्ध ( वर्ते) लिख भेर्जी और निर्दिष्ट किया कि परिग्रहमूलकजीवन मुनि के लिए कलंक है । बाह्य एवं आभ्यंतर परिग्रह
को कहां अलग
पसन्द न था । भाररूप हो रहा
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