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श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ
विविध
कहावत है 'जैसे गुरु वैसे चेले ।' इनका पदानुसरण कर अनेक शिष्य त्यागतप द्वारा सिद्धि-सोपान पर बढ़ चले। तीन थुई के त्याग-प्रधान और समकितवंत समुदाय होने का प्रतिपक्षियों ने भी लोहा माना। इधर इन्होंने अप्रतिबद्ध विहार, शुद्ध वराग्य और अपरिग्रह का वह आदर्श प्रस्तुत किया कि शिथिलाचारियों के पैर उखड़ने लगे। समाज की आँखें खुली। प्रकाश में उसने पहिचाना कि असलियत क्या है ? झुकनेवालों की कमी नहीं, जगत को झुकाने वाला चाहिए। श्री राजेंद्रसूरिजीने उग्र विहार आरंभ किए। एक चातुर्मास माखाड़में तो दूसरा मालवामें; तीसरा गुजरातमें तो चौथा नेमाड़में । इसप्रकार उन्होंने मालवा-मेवाह, गुजरात-थराद्रि, गोड़वाड, सिरोही आदि प्रदेशों को अपने अनवरत विहार से नाप लिया। इस दरम्यान अनेक गांवोंके पारस्परिक वैमनष्य, तडवन्धियां और सामाजिक बुराइयां का निरसन कर कई जगह अव्यवस्थित जिन मंदिरों और देव-द्रव्य की सुव्यवस्था करवाई। उपाश्रय एवं जिन मंदिरों को यतियों के अनुचित प्रभावसे मुक्त करवाया । सुव्यवस्था के अभाव में राज्यने जिन मंदिरोंका कब्जा लेकर उन्हें कचरागार कर रखा था उन्हें पुनः संघ के सुपुर्द करवा कर उनके उद्धार करवाए । समाज जो यतिवर्ग के आतंक से भयत्रस्त था उसके मुक्तसांस लेनेके मार्ग को प्रशस्त किया। बहुतेरे यति यातो साधुसंस्थाओं में सम्मिलित हो गए या फिर सिर्फ वे ही बच सके जिन्होंने अपना सुधार - संस्कार कर लिया। सर्वत्र एक क्रांति की झलक उमड़ पड़ी। शिथिलाचारी यतियोंके जमाने में जो अनेक विघातक तत्त्व -प्रेमी आदि पंथ पनप उठे थे उनके करण हुए । जालोर, भीनमाल, निम्बाहेडा, रतलाम आदि ऐसे अनेक क्षेत्र हैं जहां श्री राजेंद्र मूरिजी के पदार्पण से अनेक घर पुनः मंदिरमार्गी बने । जालोर सुवर्णगिरिके किले में स्थित प्राचीन जिन मंदिरों के आपने उद्धार करवाए । कोरंटक, भांडवाजी आदि तीथक्षेत्रों की भी सुव्यवस्था करवाई। जगह - जगह ग्राम, शहर के मंदिरों की दशा सुधरी।
__ मारवाड़-मालवा के गांवों में जैन मार्गी बिखरे पसे थे और उन्हें जिन-दर्शनपूजन का योग न था। ऐसे मंदिर-उपाश्रय विहीन गांवों में धार्मिक क्रियाएं सामुदायिक रूप से कैसे हो पाती? फलतः छोटे - छोटे गांवों की जनता प्रतिमापूजन के महत्त्व को भूली जा रही थी । लोग मंदिरमार्ग से विमुख हो रहे थे। अशान गर्तमें धंसते जनप्रवाह को रोकने के हेतु गुरुदेवने गांवगांव में विहार कर के उपदेश-चर्चा एवं धर्मव्याख्यानोंसे लोगों को खूब समझाया । जिन गांवों में जिन प्रतिमाओं की अपेक्षा महसूस की गई उनकी व्यवस्थाहेतु आपने संवत् १९५५ वर्ष में आहोर मारवाड़ में एक महान् प्रतिष्टा - महोत्सव आयोजित करवाया। उसमें नौसौ एकावन जिन बिम्बों की अंजना की गई थी । ये प्रतिमाएं स्थानकप्रभावित क्षेत्रों के जिनालयों में स्थापित की गई जिससे सहस्रों श्रावक, परिवार मन्दिर - विरोधी होनेसे बचे । उक्त प्रतिष्टा -महोत्सव के सम्बन्ध में कहा
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