Book Title: Yatindrasuri Abhinandan Granth
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ
विविध
तरासने में जो छोटे टुकड़े या रेजे बचते थे उन्हें चुण्ण कहा जाता था. जिन्हें भाजकल चुत्री कहते हैं। इन सबकी गणना धन में की जाती है।
इसके अतिरिक्त कुछ प्रचलित मुद्राओं के नाम भी हैं, जो उस युग का वास्तविक द्रव्य - धन था। जैसे काहावण (कार्षापण) और णाणक। काहावण या कार्षापण कई प्रकार के बताये गये हैं। जो पुराने समय से चले आते हुए मौर्य या शुंगकाल के चांदी के कार्षापण थे उन्हें इस युग में पुराण कहने लगे थे, जैसा कि अंगविजा के इस महत्वपूर्ण उल्लेख से (आदिमूलेसु पुराणे बूया) और कुशाणकालीन पुण्यशाला स्तम्भलेख से ज्ञात होता है (जिसमें ११०० पुराण मुद्राओं का उल्लेख है)। पृ० ६६ पर भी पुराण नामक कार्षापण का उल्लेख है। पुरानी कार्षापण मुद्राओं के अतिरिक्त नये कार्षापण भी ढाले जाने लगे थे। ये कई प्रकार के थेजैसे उत्तम कहावण, मज्झिम कहावण, जहण्ण [जघन्य ] कहावण । अंगविजा के लेखक ने इन तीन प्रकार के काषोपणों का और विवरण नहीं दिया। किन्तु ज्ञात होता है कि वे क्रमशः सोने, चांदी और तांबे के सिक्के रहे होंगे, जो उस समय कार्षापण कहलाते थे । सोने के कार्षापण अभी तक प्राप्त नहीं हुए, किन्तु पाणिनि सूत्र ४, ३, १५३ (जातरूपेभ्यः परिमाणे) पर हाटकं कार्षापणं यह उदाहरण काशिका में आया है। सूत्र ५।२।१२० [रूपादाहत प्रशंसयोर्यप् ] के उदाहरणों में रूप्य दीनार, रूप्य केदार और रूप्य कार्षापण - इन तीन सिक्कों के नाम काशिका में आये हैं । ये तीनों सोने के सिक्के झात होते हैं । अंग विज्जा के लेखक ने मोटे तौर पर सिक्कों के पहले दो विभाग किए-काहावण और णाणक । इनमें से णाणक तो केवल तांबे के सिक्के थे और उनकी पहचान कुशाणकालीन उन मोटे पैसों से की जा सकती है जो लाखों की संख्या में वेमतक्षम, कनिष्क, हुविष्क, वासुदेव आदि सम्राटों ने ढलवाये थे। णाणक का उल्लेख मृच्छकटिक में भी आया है । जहां टीकाकार ने उसका पर्याय शिवाङ्कटंक लिखा है । यह नाम भी सूचित करता है कि णाणक कुशाणकालीन मोटे पैसे ही थे, क्योंकि उन में से अधिकांश पर नन्दीवृष के सहारे खड़े हुए नन्दिकेश्वर शिव की मूर्ति पाई जाती है । णाणक के अन्तर्गत तांबे के और भी छोटे सिक्के उस युग में चालू थे जिन्हें अंगविज्जा में मासक, अर्धमासक, काकणि और अट्ठा कहा गया हैं । ये चारों सिक्के पुराने समय के तांबे के कार्षापण से संबंधित थे जिसकी तौल सोलह मासे या अस्सी रत्ती के बराबर होती थी। उसी तौल - माप के अनुसार मासक सिक्का पांच रत्ती का, अर्धमासक ढाई रत्ती का, काकणि सवा रत्ती की और अट्ठा या अर्धकाकणि उससे भी आधी तौल की होती थी। इन्हीं चारों में अर्धकाकिणि पञ्चवर (प्रत्यवर ) या सबसे छोटा सिक्का था । कार्षापण सिक्कों को उत्तम, मध्यम और जघन्य इन तीन भेदों में बाँटा गया हैं । इसकी संगति यह ज्ञात होती है की उस युग में सोने, चांदी और तांबे के तीन प्रकार के नये कार्षापण सिक्के चालू हुए थे। इनमें से हाटक कार्षापण का उल्लेख काशिका के आधार पर कह चुके हैं । वे सिक्के वास्तविक थे या केवल गणित अर्थात हिसाब - किताब के लिए प्रयोजनीय थे इसका निश्चय करना संदिग्ध है; क्योंकि
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