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विषय संड पुनरुद्धारक श्रीमद् राजेन्द्रसूरि
२६१ समय - समय पर पुनरुद्धार किये; किन्तु कालान्तर में पुनः पुनः आचारशैथिल्य का प्रादुर्भाव होता गया ।
श्री विजयक्षमासूरिजी के जीवनकाल में पुनः चैत्यवास उमड़ पड़ा । अत्यन्त आचार-शैथिल्य का वर्तन बढ़ने लगा । आचार्य श्रीपूज्य कहलाने लगे । समाज के नियंत्रण से स्वतंत्र होकर उल्टे वे समाज पर हावी हो गए। वे निःसंकोच पालखी में बैठ कर बड़े रसाले के साथ विचरते और अपनी लागें उगाहते। यतिगण जिन्होंने अब तक जैन शासन की बड़ी सेवाएँ की थीं और जिनका कट्टर आचार-पालन जन-विश्रुत था वे संयम और आचार को तिलांजलि देकर ज्योतिष, वैद्यक और तंत्र की दुकाने खोल बैठे । परिग्रहों की वृद्धि स्वाभाविक थी। वे जागीरे भी रखने लगे थे । जनसाधारण को मंत्र-जन्त्र के बल इस कदर आतंकित कर दिया था कि उनकी जिनाशा प्रतिकूल प्रवृत्तियों की ओर अंगुली निर्देश करने का किसी में साहस ही न रहा था। अठारहवीं शताब्दी के अंत तक चत्यवास ने उग्र रूप धारण कर लिया था। समाज का वातावरण दूषित हो चुका था।
समाज की पतनावस्था में उद्धारक अवश्य उत्पन्न होते हैं - ऐसा आप्त वचन है। भगवान् महावीर के पश्चात् जैन समाज में अनेक युगप्रभावक और पुनरुद्धारक युग युग में अवतीर्ण हुए। उन्होंने पतनोन्मुख समाज को सत्य का मार्ग दिखाया और उसमें मानवोचित गुणों का संचार किया। जिसके लिए भारत जैन समाज का ऋणी है।
___ उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी का समय समस्त भारत के हेतु भाशीर्वाद स्वरूप हुआ। इस युग में अनेक पुनरुद्धारक उत्पन्न हुए और देश में अनेक सुधार हुए । रामकृष्ण परमहंस, राजाराम मोहनराय, स्वामी दयानन्द, श्रीमद् विजयानन्दसूरि, श्रीमद् राजेन्द्र सूरि आदि ख्यातनामा पुरुषों ने इसी समय में जन्म लिया । उन्हीं दिनों सती
था-निषेध कानून बना। देश में अंग्रेजी भाषा के पठन का भारंभ हुआ। उर्दू, फारसी भाषा के शिक्षण का प्रचार प्रचुर था, वह शनै- शनैः बंद होने लगा। अंग्रेजी भाषा और उसके साहित्य का पठन आरम्भ हो जाने से हमें लाभ अवश्य हुआ। इन्हीं दिनों हमारे साहित्य व इतिहास के उद्धार का श्रीगणेश हुआ ।
जैन समाज के लिए श्री राजेन्द्र सूरिजी का अवतरण कई दृष्टिकोणों से बड़ा महत्त्वपूर्ण हुआ । आचार्य श्री प्रमोद सूरिजी ने आपको दीक्षित कराया और रत्नविजय नाम रखा। यति सागरचन्द्रजी अपने समय में अगाध पाण्डित्य के कारण बनारस तक विख्यात थे। उनके सानिध्य में आपने शिक्षा ली तथा श्री देवेद्रसूरिजी से आपने जैन शास्त्रों का अध्ययन किया । यतिधर्म का पालन आप कई वर्षों तक करते रहे । देवेन्द्रसूरिजी के स्वर्गवास के पश्चात् श्री धरणेन्द्र सूरि श्रीपूज्य हुए । धरणेन्द्रसूरि ने आपको 'दफ्तरी पद' देकर आपका बहुमान किया। राज्य शासन में जो पद अमात्य का हुआ करता है वही पद दफ्तरी का
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