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श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ
विविध
कर्म में निमित्त का बल आत्मा के उपर कर्म बलात्कार नहीं करता, वह सिर्फ विभाव का निमित्त पूर्ण करता है और निर्बल आत्मा निमित्त की सत्ता से पराभव पाकर परभाव में परिणमन करता है । मोहनीय कर्म के उदयकाल में वह कर्म कषाय का निमित्त सामने लाता है, परंतु उस में आत्मा को बलात्कार से किसी भी कषाय में जोड़ने की शक्ति नहीं है । सिर्फ बलहीन आत्माएं ही निमित्त के उदयकाल में तत्प्रायोग - विभाव में परिणमन करती है। नाट्यगृह, होटल, मिठाई की दुकान वगैरह जिस तरह रस्ते से चलने वालों के लिये नाटक देखने का, मिठाई खाने का निमित्त ही पूर्ण करती है; परंतु बलात्कार से उस निमित्त तत्प्रायोग कार्य में उन की योजना नहीं करती।
जो वीर्यवान् आत्मायें निमित्त की सत्ता के वश नहीं हैं, वे अल्प काल में परम पुरुषार्थ की सिद्धि कर सकती हैं । उदयमान कर्म बाल तथा पंडित उभय को समान भूगतने पड़ते हैं, परंतु उन दोनों की क्रिया में अंतर है।
मोहनीय कर्म अन्य कर्मों का जनक एवं पोषक है । उस के द्वारा ही अन्य कर्मों को पोषण मिलता है । बलवान् आत्मायें ऐसा मानती हैं कि उदयमान कर्म मेरे से ही प्रकट हुए हैं। पूर्व काल में मैंने ही अज्ञान दशा में इन की योजना की है।
कर्म का कर्ता शानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय कर्मों के निमित्त से उपस्थित होनेवाले भावों के द्वारा जीव द्रव्यकों को आकर्षित करता है । आत्मा के रागद्वेष - संबंधी परिणाम भावकर्म कहलाते हैं।
पुद्गल का विकार - द्रव्यकर्म और वह राग-द्वेष रूपी भावों के द्वारा आकर्षित होकर आत्मा के साथ एक क्षेत्रावगाह होता है । उपर्युक्त उभय कर्मों की. आधार भूमि नौ-कर्म है । द्रव्य तथा भाव कर्मों के परिणमन में शरीर उपकारक है और नौ-कर्म शरीर - इन्द्रियों के प्रवर्तन में मन उपकारक है। उस कारण से वह नौ- इन्द्रिय एवं नौ-कर्म शरीर समझा जाता हैं।
जिस कर्म की वर्गणा में जो विशिष्ट स्वभाव हो, उस रूप में विशेष अंश में परिणमन होता है और बाकी की सात कर्मों की प्रकृतियों में न्यून अंशों में । जैसे बादाम में मस्तिष्क को पोषण देने का धर्म है, उस का खून तथा मांस अल्प बनता है।
कषाय -आत्मा का स्वरूप ज्ञानरूप सम्यक्त्व और स्वरूपाचरणरूप चारित्र है। जो सकल एवं यथाख्यात चारित्र का अवरोध करे, वह कषाय है। प्रकृतिबंध का कार्य कर्मवर्गणा को आत्मीय प्रदेश के साथ योजना करने का है। अनुभागबंध का कार्य कार्मणस्कंधों में रही हुई फलदानशक्ति विस्तार करने का है । तदनुसार
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