Book Title: Yatindrasuri Abhinandan Granth
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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विषय खंड
मेघ विजय जी एवं देवानन्द महाकाव्य
२५५
है। आकाश में काले-काले मेघ उमड़ आये हैं। सहसा ही बिजली चमक एवं गर्जन करती है । उसी समय कम्पित होती हुई स्त्रियाँ अपने पतियों का आश्रय प्राप्त करलेती है।
स्वनघतो नवतोय धराद् वधू सहसा सहसा तडिताप्रियम् ।
भृशमनाशमनाः स्वयमाश्रयत् न सहसा सहसा कृतचेपथुः ॥ इसी तरह मेघविजयजी की शरद ऋतु भी इठलाती, झूमती आती है। शरद ऋतु रूपी लक्ष्मी हास्य से युक्त है । उसके हाथों में फमलों के सुन्दर कंगन हैं । वृक्षों के सुन्दर - सुन्दर पत्ते मानो लक्ष्मी के अधरों की मुस्कराहट है।
.. शरदभाद् रदमासिहसश्रिय धवलया वलयायित पंकजैः। .. . धृतरुचा तरुचारु सुपल्लवैर्मृदुतया दुतयाधरलेखया ॥
देवानन्द महाकाव्य का प्रकृति - वर्णन अत्यन्त उच्च कोटी का बन पड़ा है । मेधविजयजी ने बनी को एक स्त्री के रूप में माना है । इस प्रकार अचेतन पर चेतन का आरोप किया है । प्रकृति का भी मानवीकरण कर दिया है ।
शुचिरयादिनमण्यधितापयन् प्रथमतोऽप्य मतो न धनाद् भुवः ।
इह वनी रतयेऽस्य शिरीषजा हरिवरिव धूलिमुदक्षिपत् ॥ ___ हरि की पत्नी के समान यह घनी इसके सुख के लिये शीतल एवं कोमल धूल को फैक रही है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि मेधविजयजी प्रकृति का चित्रण करने में अत्यन्न प्रवीण हैं । प्रकृति के अतिरिक्त उत्सवों का वर्णन भी उच्च कोटी का किया है।
परस्परं तत्क्षणवीक्षणार्थ-मिलद्वधूना बदनेन्दुभासा । शरीरिणा जैत्रशरेण यत्र स्मरेण रेमे रमणेषु कामम् ॥ लीलावतीनां कलगीतनादं श्रुत्वान्तराऽऽस्वादविमुद्रिताक्षः ।
नटेश्वरोऽभूत किमतस्तदानीं निःशङ्कमूषे मकरध्वजेन ॥ चारों और आनन्द ही आनन्द है । नव बधुवे जिनके मुख चन्द्रमा के समान सुन्दर हैं, उन्हें देखने के लिये तरक्षण प्रयत्न कर रही हैं । चारों ओर सुन्दर गीत का नाद सुनाई पड़ रहा है।
उत्सवों की छटा निराली है । चारों और आनन्द है । ऐसे समय में ही चरितनायक रैवतक पर्वत पर यात्रा के लिये निकल पड़ते हैं । रैवतक पर्वत पर श्री नेमिनाथ जी का मन्दिर सुशोभित है । उसकी शोभा का वर्णन करते हुये मेघविजय जी लिखते हैं:
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