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श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ
प्रवज्या
संसार से निःस्पृह विरक्त बन कर महावीरने तीस वर्षकी भरयुवावस्थामें संयम के कठिन सन्मार्ग पर संचरण किया था । स्वयं पंचमुष्टि केश- लुंचन कर के खड्ग की धार पर चलने जैसी दुष्कर प्रव्रज्या (दीक्षा) स्वीकारी थी । देवों, दानवों और मानवों के विशाल समूह के समक्ष जीवन पर्यन्त समभावमय सामायिक में रहने की प्रतिज्ञा की थी । मन, वचन और काया से हिंसा आदि किसी प्रकार की पाप - प्रवृत्ति वे स्वयं नहीं करेंगे, इतना ही नहीं, दूसरों से पापप्रवृत्ति नहीं करावेंगे और ऐसी किसी भी पाप - प्रवृत्ति का अनुमोदन भी नहीं करेंगे ऐसी अचल प्रतिज्ञा स्वीकारी थी । उसी समय महावीर को मनःपर्याय नामक चतुर्थ ज्ञान की प्राप्ति हुई थी ।
विविध
उत्कृष्ट साधक
अहिंसा, संयम और तप के ऐसे उत्कृष्ट मार्ग में प्रयाण करने में महावीर ने कष्टों -विनों की तनिक भी परवा न की थी । भयंकर उपद्रवों से, उपसर्गों से वे कभी न डरे-न डिगे, वे कभी हताश निराश न हुए । अपने ध्येय से वे कभी चलित नहीं हुए । कई दुष्ट देव-दानवों ने उनको कष्ट पहुँचाने में लेश भी कमी नहीं रखी थी एवं अधम पामर मानवों ने और क्रूर हिंसक तिर्यच जातिने भी उनको कष्ट पहुँचाने में किसी तरह की न्यूनता नहीं की थी। लेकिन मेरूपर्वत जैसे धीर महावीर ने समभाव में रह कर संपूर्ण सहिष्णुता का, अटल अडगवृत्तिका अनुपम उदाहरण दिखलाया था । भयंकर में भयंकर प्राणान्त कसौटी होने पर भी वे अद्भुत धैर्य से सच्चे वीर प्रतीत हुए, न कभी अनुकूल प्रलोभनों से भी ललचाए गए। भारत के निश्चयशाली सच्चे साधु, संत, क्षमाश्रमण, महात्मा कैसे होते थे ? और कैसे होने चाहीए ? आदर्श निःस्पृह योगीश्वर कैसे होते हैं ? - उनका असाधारण श्रेष्ठ दृष्टान्त भगवान् महावीर ने अपनी उत्तमोत्तम जीवन - चर्यासे दिखलाया है ।
महान तपस्वी
भगवान् महावीर जैसा उत्कृष्ट सहनशील क्षमामूर्ति और महान् तपस्वी दूसरा कोई जगत में मिलता नहीं है। शायद ही मिल सके। महान् वीरने उच्च साधुताकी साधक -दशामें करीब साढ़े बारह वर्षों की उग्र तपस्या में केवल ३४५ ही पारणे किये थे । कभी छमासी, तो कभी चारमासी, कभी दोमासी तो कभी एक मासी जैसी निर्जल उपवास की तपस्या क्रमशः चालू रक्खी थी। ऐसे तपस्वी हो कर वे बहुधा एकान्त निर्जन वन आदि प्रदेश में खड़े पैर खड़े रहकर उत्तम ध्यानस्थ दशा में ही सदा लयलीन रहते थे, कभी प्रमाद नहीं करते थे । क्षुधा या तृषा, ठंडी, गरमी अथवा बारिस की परवा नहीं करते थे। दिन और रातमें भी अपने उच्च ध्यान में वे सदा मन रहते थे ।
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अद्भुत क्षमादि सद्गुण
चंड कौशिक जैसे भयंकर दृष्टिविष सर्पने दंश दिया था । भगवान् ने उसको भी
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