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विषय खंड
अंग विज्जा
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एक विशेष प्रकार का वर्तन पणसक होता था जो कटहल की आकृति का बनाया जाता था। इस प्रकार के एक समूचे वर्तन का बहुत ही सुन्दर नमूना अहिच्छत्रा की खुदाई में मिला है। हस्तिनापुर और राजघाट की खुदाई में भी पणसक नामक पात्र के कुछ टुकड़े पाये गये हैं। यह पात्र दो प्रकार का बनाया जाता था । एक बाहर की ओर कई पत्तियों से ढंका हुआ और दूसरा बिना पत्तियों के हूबहू कटहल के फल के आकार का और लगभग उतना ही बड़ा । अर्धकषित्थ वह प्याला होना चाहिए जो आकृति में अति सुंदर बनाया जाता था और आधे कटे हुए कैथ के जैसा होता था। ऐसे प्याले भी अहिच्छत्रा की खुदाई में मिले हैं। सुपतिट्टक या सुप्रतिष्ठित वह कटोरा या चषक होता था जिसके नीचे पैंदी लगी रहती थी और जिसे आजकल की भाषा में गौडेदार कहा जाता है। पुष्करपत्रक, मुंडक, श्रीकंसक, जम्बूफलक, मल्लक, भूलक, करोटक, वर्धमानक ये अन्य बर्तनों के नाम थे। खोरा, खोरिया, बाटकी (वट्टक नामक छोटी कटोरियां) भी काम में आती थीं। शयनासनों का उल्लेख ऊपर आ
चुका है। उनमें मसूरक उस तकिये को कहते थे जो गोल चपटा गाल के नीचे रखने को काम आता था, जिसे आज कल गलसूई कहा जाता है।
मिट्टी के [पृ. ६५] पात्रों में अलिंजर (बहुत बड़ा लंबोतरा घडा), अलिन्द, कुंडग ( कुंडा नामक बड़ा घडा), माणक (ज्येष्ठ माट नाम का घड़ा) और छोटे पात्रों में वारक, कलश, मल्लक, पिठरक आदि का उल्लेख है।
इसी प्रकरण में धन का विवरण देते हुए कुछ सिक्कों के नाम आये हैं जैसे स्वर्णमासक, रजतमासक, दीनारमासक, णाणमासक, कार्षापण, काहापण, क्षत्रपक, पुराण और सतेरक । इनमें से दीनार कुशाणकालीन प्रसिद्ध सोने का सिक्का था जो गुप्तकाल में भी मी चालू था । णाण संभवतः कुशानसम्राटों का चलाया हुआ मोटा गोल बडी आकृति का तांबेका पैसा था। जिसके लाखों नमूने आज भी पाये गये हैं। कुछ लोगों का अनुमान है कि ननादेवी की आकृति सिक्कों पर कुशाणकाल में बनाई जाने लगी थी
और इसीलिए चालू सिक्कों को नाणक कहा जाता था । पुराण शब्द महत्वपूर्ण है जो कुशाणकाल में चांदी की पुरानी आहत मुद्राओं के लिए (अंग्रेजी पंचमार्कड) के लिए प्रयुक्त होने लगा था, क्योंकि नये ढाले गये सिक्के की अपेक्षा वे उस समय पराने समझे जाने लगे थे; यद्यपि उनका चलन बेरोकटोक जारी था। हुविष्क के पुण्यशाला लेख में ११०० पुराण सिक्कों के दान का उल्लेख आया है। खत्तपक संज्ञा चांदी के उन सिक्कों के लिए उस समय लोक में प्रचलित हुई थी जो उज्जैनी के शकवंशी महाक्षत्रपों द्वारा चालू किये गये थे और लगभग पहली शती से चौथी सती तक जिनकी बहत लम्बी शंखला पायी गयी है। इन्हें ही आरम्भ में रुद्रदामक भी कहा जाता था। सतेरक यूनानी स्टेटर सिक्के का भारतीय नाम है । सतेरक का उल्लेख मध्यएशिया के लेखों में तथा वसुबन्धु के अभिधर्म कोशमें भी आया है।
पृष्ठ ७२ पर सुवर्ण-काकिणी, मासक-काकिणी, सुवर्ण-गुंजा और दीनार का उल्लेख हुआ है । पृष्ठ १८९ पर सुवर्ण और कार्षापण के नाम हैं । पृ. २१५-१६ पर
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