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विषय खंड
श्री नमस्कार महामंत्र
अतिशय जन्म से ही होते हैं । ५ योजन प्रमाण क्षेत्र में देवों तथा देवेन्द्रों द्वारा रचित सभवसरण (व्याख्यान सभा) में असंख्य देवों, मनुष्यों और तिर्यंचों का बिना किसी कष्ट के समावेश हो जाना । ६ मनुष्य, देव तथा तिर्यंच सब को निज निज भाषा में योजन प्रमाण भूमि में सब को समान रूप से सुखपूर्वक सुनाई देना । ७ मस्तक के पृष्ट भाग में अपने मनोहर सौन्दर्य से सूर्य की शोभा की भी विडम्बना करनेवाले भामण्डल का रहना । ८ सवासौ योजन प्रमाण क्षेत्र में उपद्रव न होना । ९ समस्त प्रकार की ईतियों का शमन । १० मारी आदि महाभयंकर रोगों का शमन । ११ अतिवृष्टि न होना । १२ अनावृष्टि न होना । १३ दुर्भिक्ष्य न होना । १४ स्वचक्र और १५ परचक्र भय न होना । ये ग्यारह अतिशय घनघाति चार (ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय, वेदनीय और मोहनीय) कर्मों का क्षय होने से होते हैं । १६ आकाश में धर्म का चलन । १७ देवों द्वारा अहोनिश चामरों का ढोना । १८ उज्ज्वल ऐसे परमशोभा से युक्त पादपीठ सह सिंहासन का रहना । १९ मस्तक पर छत्र त्रय रहना । २० रत्नमय धर्मध्वज साथ रहना । २१ विहार में चलते समय देवों द्वारा चरणों के नीचे स्वर्णकमलों की रचना करना । २२ त्रिगढ़ का होना । २३ पह्मवर वेदिका पर विराजित भगवान का चारों दिशाओं में समान रूपसे दीखना । २४ अशोक वृक्ष की छाया का निरंतर रहना । २५ कांटोंका अधोमुख हो जाना २६ वृक्षों का ऐसा झुकजाना कि मानों वे भगवान को नमस्कार करते हो । २७ देवों द्वारा भुवनव्यापी देवदुन्दुभि (वाद्य विशेष) की ध्वनि करना । २८ अनुकूल हवा चलना । २९ पक्षियों द्वारा प्रभु को वंदन करना ३० सुगन्धयुक्त जल की वर्षा होना । ३१ बहुवर्णफूलों की वृष्टि होना। ३३ बाल, दाढी और मूंछ नखादि का वर्धन न होना । ३४ कम से कम क्रोड़ देवता सदैव भगवान के साथ रहना । ३४ छहों ऋतुओं का अनुकूल होना। ये (४-११-१९-३४) चौतीस अतीशय अरिहंत भगवान के होते हैं। श्री समवायांग सूत्र की ३५ वीं समवाय में भी अतिशयों का वर्णन है ।
भगवान के चार मूल अतिशयों में से जो वशनातिशय है वह पैंतीस गुणों से युक्त होता है। वाणी के गुण इस प्रकार हैं :--
संस्कारवत्वमौदात्यमुपचार परीतता । मेघगम्भीरघोषत्वं, प्रतीनादविधायिता ॥६५॥ दक्षिणत्वमुपनितरागत्वं च महार्थता । अव्याहतत्वं शिष्टत्वं, संशयानामसंभवा ः ॥६६॥ निराकृतान्योत्तरत्वं, हृदयगमतापि च । मिथः साकांक्षता, प्रस्तावौचित्यं तत्वनिष्ठता ॥६७॥ अप्रकीर्णप्रसृतत्वमस्वश्लाघान्यनिन्दिता । आभिजात्यमतिस्निग्धमधुरत्वं प्रशस्यता ॥८॥
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