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विषय खंड
आदिकाल का हिन्दी जन साहित्य और उसकी विशेषताएँ
होती हैं, परन्तु उनके साहित्य की हस्तलिखित प्रतियाँ १७ वीं शताब्दी तक की ही मिलती हैं। अतः नाथों की रचनाओं के द्वारा उनकी भाषा के तत्कालीन स्वरूप की प्राचीनता १७ वीं शताब्दी से की हस्तलिखित प्रतियों के अभाव में सिद्ध नहीं हो पाती। नाथों से इतर साहित्य भी आदिकाल के साहित्य की प्राचीनता में अधिक योग नहीं देता । अतः जैन साहित्य ही शेष रह जाता है । लगभग ११ वीं से १६ वीं शताब्दी तक बोलियां या प्रान्तीय भाषाओं में लिखा हुआ यह साहित्य अनेक हस्तलिखित प्रतियों के रूप सुरक्षित है । अस्तु, आदिकाल की तत्कालीन भाषा और साहित्य का स्वरूप इसी साहित्य की हस्तलिखित प्रतियों के आधार पर निश्चित किया जा सकता है । इनमें से अनेक कृतियां प्रकाशित भी हो चुकी हैं।'
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अतः
हिन्दी के प्रसिद्ध विद्वान् रामचंद्र शुक्ल ने अपने इतिहास में इस सामग्री का विवेचन नहीं किया है । क्यों कि एक तो उनकी दृष्टि में यह धार्मिक सामग्री मात्र थी। दूसरे उस समय शोध की कठिनाइयां थीं और ये रचनाएं उस समय उपलब्ध भी नहीं थीं। इसके अतिरिक्त उन्होंने जैन भंडारों का निरीक्षण भी नहीं किया और " इसे केवल मात्र धार्मिक या उपदेश प्रधान साहित्य मानने की संभावना करके उन्होंने इस साहित्य का स्पर्श ही नहीं किया । इन अपभ्रंश रचनाओं की बात तो दूर रही, बहुत पहले स्वयं प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् और भाषाशास्त्री पिशेल को भी शोध की असुविधा से अपभ्रंश साहित्य के लिए भी यह कहना पड़ा था कि " अपभ्रंश का समृद्ध और विपुल साहित्य खो गया है " उस समय इस आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य पर ध्यान जाता तो और भी कठिन या असाध्य कार्य था । इसके अतिरिक्त जिन जैन, अजैन लेखकों ने इस साहित्य पर प्रकाश डाला भी, तो इसके प्रति विद्वानों की दृष्टि उपेक्षित ही रही । ऐसा क्यों हुआ है ? इसके कारण पर आगे प्रकाश डाला जायगा । यह कहा जा सकता है कि संभवतः या तो उनकी यह कल्पना रही हो कि यह साहित्य दुर्लभ साहित्य है । या वे जैन भन्डारों की यात्रा और शोध करना समय नष्ट करना ही समझते हों, या अन्य कोई कारण | परन्तु जहां तक इन कृतियों की साहित्यिकता, काव्यात्मकता और कलात्मकता का प्रश्न है, मैं पूर्ण दृढता से कह सकता हूं कि, न तो यह साहित्य एकदम धार्मिक ही है और न केवल उपदेश मात्र । यह तो जीवन क बहुत पास आकर झांकनेवाला यथार्थवादी सुन्दर साहित्य है । जिसके मूल में प्रेरणा देने के लिए धर्म व्यवहृत हुआ है। इस समय ऐसी अनूठी रचनाएं मिलती हैं, जो किसी भी भाषा के उत्तम साहित्य की श्रेणी में रखी जाने योग्य हैं । ११ वीं शताब्दी का धनपाल लिखित ' महावीर उत्साह' १२ वीं शताब्दी की जिनदत सूरि स्तुति ' ' नवकार महात्म्य, १३ वीं शताब्दी का शालिभद्र सूरि
१. देखिए लेखक का - " साहित्यकार " फरवरी सन् १९५८ में प्रकाशित “ आदिकाल का प्रकाशित हिन्दी जैन साहित्य लेख ।
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२. श्री राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ पृ. ६२१.
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