Book Title: Yatindrasuri Abhinandan Granth
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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श्री यतीन्द्रमूरि अभिनंदन ग्रन्थ
विविध
कथाओं को भी इन जैन कवियों ने अत्यन्त दक्षता से संवारा है। उदाहरणार्थ 'भरतेश्वर बाहुबली रास', 'नेमिनाथ फागु 'पंचपाण्डव चरितरास', 'विराट पर्व', 'विद्याविकास पवाडो', 'ज्ञानपंचमी चौपाई', 'हंसराज वच्छराज चौपाई' आदि प्रबंध काव्यों के अतिरिक्त 'स्थूलिभद्र फागु', 'नेमिनाथ चतुष्पदिका', 'जंबूरवामी चरित' जैसे मधुर खंडकाव्य भी हैं । सैंकड़ों की संख्या में नीति-उपदेशमूलक स्तोत्र तथा स्तवन-साहित्य मिलता है। अतः इसका भंडार अत्यन्त समृद्ध है। जहां तक सामाजिक विषयों से सम्बन्ध हैं, इन कृतियों में लगभग सभी प्रकार के विषय आ गये हैं । अतः केवल मात्र धर्म पर ही लिखे हुये ये ग्रन्थ नहीं हैं। ४. विविध परंपराओं का द्योतक :
ये कृतियाँ जैनियों के साहित्य और समाज की विविध परंपरा में बंधी होने के कारण ही पूर्णतया सुरक्षित रह सकी हैं। जिन परंपराओं पर भी ये कृतियाँ प्रकाश डालती हैं उनका विवेचन इस प्रकार किया जा सकता है :
प्रथम परंपरा है :- आगमों का स्वाध्याय, जैनेतर साहित्य का अनुशीलन, मौलिक ग्रन्थों का प्रणयन । अतः इन नियमों के कारण जैन साहित्य के अतिरिक्त जैनेतर विषय भी इन कवियों और विद्वानों के विषय बनाये जाते थे और उन विषयों का वे सम्यक् अध्ययन प्रस्तुत करते थे।
द्वितीय परंपरा है :-शान के अनेक भंडारों की स्थापना, सुरक्षा और उनका सम्यक् प्रबंध । अतः इसी परंपरा से इन जैन भंडारों में जैन तथा जैनेतर कृतियाँ सुरक्षित रही हैं । तथा भंडारों की व्यवस्था भी संतोषजनक मिलती है। अन्यथा अबतक इस साहित्य का अधिकांश साहित्य कभी का नष्ट हो गया होता ।
तृतीय परंपरा है:-ग्रंथ-लेखन और प्रतिलिपि-कार्य करना । अनेक लिपीकार भंडारों के ग्रंथों की प्रतिलिपियाँ करते थे । कई लिपिकारों की तो जीविका भी इसी कार्य से चलती थी । उदाहरणार्थ आज भी पाटण, अहमदाबाद, बीकानेर और नागौर में इस प्रकार के प्रतिलिपिकार (लेखक) हैं जो अपनी आजीविका प्रतियोंकी प्रतिलिपि करके ही कमाते हैं । जैन श्रावक, जैनी धनिक, तथा राजकीय यशप्राप्त जैनी स्वयं अपना प्रचार और धर्म-प्रचार आदि कार्यों के लिए इन कृतियों की प्रतिलिपि आदि करवाते थे । अतः अनेक जैनेतर ग्रन्थों की प्रतियां और प्रतिलिपियाँ तथा प्रतिलिपियों की प्रतिलिपियाँ भी वहां पर सुरक्षित हैं, तथा जैन लेखकों की तो हैं ही।
१. देखिए-भरतेश्वर 'बाहुबलीरास संपादक श्री लालचंद भगवानदास गांधी-प्रकाशक-प्राच्यविद्यामंदिर वडोदरा, विक्रम संवत १९९७.
१. G.O. S. Cxviii पृ. ६५-७४. ३. वही, पृ. १-११७.
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