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श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ
विविध
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चायक है। न तो ८४ जातियां और न ८४ गच्छ ही एक साथ बने और न उनकी संख्या उतनी ही थी। न्यूनाधिक एवं भिन्न-भिन्न समय में स्थापित होने पर भी जातियां एवं गच्छों की संख्या की ८४ अंक की लोकप्रियता के कारण वैसी सूची बनादी गई है। ८४ संख्यावाली जातियों व गच्छादि की प्राप्त सूचियों में परस्पर भिन्नता पाई जाती है। उनमें के कई नामों का तो कोई महत्त्व नहीं है एवं अन्वेषण करने पर अन्य में कई नाम उस सूची में सम्मिखित करने योग्य प्राप्त होते हैं । प्राचीन श्वे. गण, कुल, वंश व शाखायें :___कोई भी संघ ज्यों-ज्यों संख्या में बढता चला जाता है, व्यवस्था की सुगमता एवं विचारभेद आदि के कारण वह अनेक भागों में विभक्त होता रहता है। भ. महावीर के पश्चात् जैन श्रमण संघ पर यही प्राकृतिक नियम लागू होता है । वास्तव में यह विभाजक कोई बुरा नहीं है, अपितु कई दृष्टियों से आवश्यक एवं उपयोगी भी है । पर इसमें खराबी का प्रारम्भ वहीं से आरंभ होता है जहां से व्यक्तिगत अहभाव बढने लगता है। इसी अहंभाव के बढ जाने से विचारभेद विरोघभाव तक पहुँच जाता है और विरोध के बढते ही संघ की छिन्नभिन्नता व स्वच्छन्दता बढ़ने लगती है और वहीं उनके विनाश का मूल कारण है । एक ही माता के गर्भ से यावत् साथ ही दो उत्पन्न व्यकियों के विचार एक से नहीं होते तो हजारों-लाखों व्यक्तियों में विचारों की एकता होना असंभव प्रायः है। पर इससे खास खराबी नहीं होती यदि वह विरोध का रूप धारण न कर मर्यादादि अनुशासन में रहता है। अतः संघव्यवस्थाके लिये अनुशासनप्रियता आवश्यक गुण है-पर होना चाहिये वह योग्य व्यक्ति का ।
श्वे. जैन श्रमण परम्परा का प्राचीन इतिवृत्त कल्पसूत्र एवं नंदीसूत्र की स्थविरावली में पाया जाता है। इनमें से कल्पसूत्र की स्थविरावली विस्तृत होने से अधिक महत्व की है । प्राचीन श्रमण परम्परा में गण, कुल, वंश व उनकी शाखाओं का समय-समय पर उद्भव कैसे व किनसे हुए ? इसका यत्किचित् विवरण इसी स्थविररावली में पाया जाता है।
__ कल्पसूत्र की स्थविरा के अनुसार भ. महावीर के शासन में आ. सुधर्मा की परम्परा में ५ वीं शती (वीरात् ९८०) तक के गण, शाखा, कुल, वंश के नाम इस प्रकार हैंगण :
(१) सुप्रसिद्ध आ. भद्रबाहु के शिष्य स्थविर गोदास से “गोदासगण" प्रसिद्ध हुआ । इसकी ४ शाखाएं हुई १ तामलित्तिया, २ कोडी रिसिया, ३ पंडु (पौंड) वद्धणिया, ४ दासीखव्वडिया।
(२ आर्य महागिरि के शिष्य उत्तर वलिस्सह से “ उत्तरयलिस्सह गण" निकला । इसकी भी ४ शाखायें हुई ।
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