Book Title: Yatindrasuri Abhinandan Granth
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
View full book text
________________
विषय खंड
जैन श्रमणों के गच्छों पर संक्षिप्त प्रकाश
१४७
गुंदउच शाखा - यह वड़गच्छ की एक शाखा है। पाली से दक्षिण १० मील पर गुन्दौच स्थान है । उससे यह निकली है। इसके कई प्रतिमा-लेख प्रकाशित हैं ।
घोषपुरीप-मुनिजिनविजयजी संपादित 'जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह' में १४ वीं शताब्दी की नं. १९ की प्रशस्ति में इस गच्छ का नाम आता है। नाम पर विचार करने से यह घोषपुर नामक स्थान से सम्बन्धित प्रतीत होती है।
चंद्रगच्छ -संभवतः चन्द्रकुल ही पीछे से चंद्रगच्छ रूप में प्रसिद्धि में आगया हो । इस गच्छ के १३ से १५ वीं शताब्दी की प्रशस्तियां व अभिलेख प्राप्त होते हैं । तपागच्छ एवं खरतरगच्छ के लिए भी गुर्वावलि व प्रशस्ति में चंद्रगच्छ नाम लिखा मिलने से चंद्रकुल की एकता समर्थित है।
चंद्रप्रभाचार्यगच्छ - नाहरजी के जैनलेख संग्रह में सं. ११९७ का (ले. ४५६) इस गच्छ के उल्लेखवाला लेख है । नाम से यह चंद्रप्रभसूरि समुदाय ही झाँत होता है।
चैत्रवाल गच्छ - सुप्रसिद्ध तपागच्छ के मूल पुरुष जगचंद्रसूरि मूलतः इसी गच्छ के भुवनचन्द्रसूरि के शि. देवभद्र के शिष्य थे। अतः देवेन्द्रसूरि व क्षेमकिर्तिसूरि ने तपागच्छ की परम्परा इसीसे भिलाई है, पर पीछे से वह वृहद् गच्छ से मिला दी गई है। चैत्रपुर नामक स्थान से इसका नाम चैत्रगच्छ पड़ा ऐसा बृहत्कल्पवृत्ति एवं मुनिचन्द्रसूरि के गुर्वावलि (पद्यांक ६४) से स्पष्ट होता है। १३ वीं से १७ वीं शती तक के इस गच्छ के उल्लेख मिलते हैं । बुध्दिसागर सूरि के मतानुसार इसका उत्पत्ति स्थान चैत्रवाल नगर मारवाड़ में है ।
प्राचीन लेख संग्रह से इस गच्छ की ३ शाखायें -
१. धारणपद्रीय, २. चांद्रसमीय, ३. सलखणपुरा का पत्ता चलता है। प्राचीन जैन लेख संग्रह में इसकी चौथी 'सार्दूल शाखा' ( १७ वीं शती) का भी नाम है।
राजगच्छ पट्टावलि के अनुसार वह इसी गच्छ से उत्पन्न हुआ व वीरगणि से इसकी कम्बोइया व अष्टापद शाखा प्रसिध्दि में आई।
छत्रपल्लीय - बुध्दिसागरसूरि के जैन धातु प्रतिमा लेख संग्रह भा. २ ले. १३३ में इस गच्छ के पनप्रभसूरि (सं. १२९४) का उल्लेख है । छत्रापल्ली नामक किसी स्थान से इसका सम्बन्ध प्रतीत होता है ।।
छीतांवरगच्छ --आबू लेखांक ५१९ वे में सं. १२९० के लेख में यह नाम मिलता है। अन्य कोई उल्लेख नहीं मिला। श्वेताम्बर से छीतांबर अपभ्रंश नाम होना संभव है।
छहितेरा-नाहरजी के जैन लेख संग्रह ले. ११९४ में सं. १६१२ का इस गच्छ का एक लेख है। संभव है लेख खोदने व पढने में अशुध्दि के कारण यह नाम प्रसिध्दि में आया है।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org