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विषय खंड
जैन श्रमणों के गच्छों पर संक्षिप्त प्रकाश
४) विजयदेवसूरि - देवसूरिशाखा - सं. १६८१ में विजयदेवसूरि नाम से प्रसिद्ध
५) विमलशाखा - सं. १७४९ में ज्ञानविमलसूरि से यह शाखा चली ।
६) सागरशाखा–सं. १६८१ के लगभग राजसागरसूरि से सागरशाखा निकली। अहमदाबाद के सेठ शांतिदास ने इसमें बहुत सहयोग दिया | परम्परा के लिये दे. जै. गु. क. भा. २ परिशिष्ट व जैन गच्छ मत प्रबन्ध |
७) रत्नशाखा - उपकेश की द्विवंदनीक शाखा के कक्कसूरि के शिष्य राजवल्लभ सूरि के शिष्य राजविजयसूरि से रत्नशाखा १७ वीं सदी में चालू हुई । इस शाखा के आचार्य व मुनियों के नाम रत्नांत होने से यह नाम प्रसिद्ध हुआ । इसकी संक्षिप्त पट्टावलि जैन गुर्जर कवियों भा. ३ के परिशिष्ट में प्रकाशित है ।
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८) कमलकलश शाखा १६ वीं सदी के कमलकलशसूरि से यह शाखा निकली । इस शाखा की गद्दी अब भी धनारी में विद्यमान है व वर्त्तमान श्री पूज्य का नाम विजयजिनेन्द्रसूरि है ।
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९) कुतबपुरा - कुतबपुरा स्थान से इसका नामकरण हुआ है । इस शाखा के १६ वीं शती के उल्लेख नाहरजी के लेख संग्रह में प्रकाशित हैं । इन्द्रनंदिसूरि का समुदाय इस नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
१० ) निगम - कुतबपुरा शाखा में से हर्षविनयसूरि [१६ वीं ] ने निगममत निकाला । इसका अपर नाम भूकटीया मत भी है ।
११) रत्नाकर गच्छ–१४ वीं शताब्दी के रत्नाकरसूरि से प्रसिद्ध हुआ । इसकी एक भृगुकच्छीय शाखा का भी उल्लेख मिलता है। विशेष जानने के लिए पट्टावलि समुच्चय भा. २ की पूरवणी देखें ।
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तालध्वजीयशाखा - प्रसिद्ध तलाजा नामक स्थान से इसका सम्बन्ध है । पीपल गच्छ की शाखा है । प्राचीन लेखसंग्रह ले. ४१६ में सं. १५२८ का लेख प्रकाशित है ।
त्रिभवियागच्छ - वास्तव में यह पिपलगच्छ की शाखा है। इसके १५-१६ वीं शती के कई प्रतिमा - लेख प्रकाशित हैं । पिप्पलगच्छीय धर्मदेवसूरि ने सारंगरायको उसके तीन पूर्वभव बतलाये । इसी घटना को लेकर इसकी परम्परा का नाम ' त्रिभ विया' पड़ा प्रतीत होता है ।
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धारापद्रीय – डीसा के पश्चिम ४० माइल पर थराद नामक ग्राम है । उसीसे यह गच्छ प्रसिद्धि में आया है । इसका ११ वीं शती का एक लेख प्राप्त है । उत्तराध्ययन की पाइय टीका व तिलकमंजरी टिप्पन के निर्माता शांतिसूरि ( ११ वीं, ), संग्रहणी वृत्ति (सं. ११३९ ) के निर्माता शालिभद्रसूरि व उनके शिष्य काव्यालंकार व आवश्यक
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