Book Title: Yatindrasuri Abhinandan Granth
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ
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१५. राज्याश्रय रहित जनता का साहित्य :
जैन कवि आत्मानंद में मग्न रहनेवाले, भौतिक आडंबरों से दूर रहनेवाले तथा समाजसेवी थे । धर्म, त्याग और संयम के कठोर बंधन में ही वे बंधे थे । अतः एक ओर उन्हें अपनी धार्मिक नियमबद्धता और गुरुओं की आज्ञापालन का कर्त्तव्य करना पड़ता था, तो दूसरी ओर जनता के भावों को कबीर की भांति जनता के ही विचारों में पहुंचाना और प्रचार करना पड़ता था । अतः राज्याश्रय और कृतिम दबाव इन कवियों की आत्मा और काव्यानुभूति की तीव्रता और यथार्थ चित्रण को कलुषित नहीं कर पाया । अतः अनेक साहित्यकवियों ने उच्चकोटि की स्वान्तः सुखाय रचनाएं लिखी हैं । जिनमें जीवन का चित्रण भी " आँखों का देखा " हुआ है- " कागज का लिखा " नहीं । अस्तु, आदिकालीन हिन्दी जैनकवियों के चित्रण में अतिरंजना को कहीं स्थान नहीं है ।
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विविध
१६. वर्णन के मूलतत्वः धर्मप्रचार और उपदेशमूलकता :
इन कृतियों में अपने दैनिक जीवन की प्रभावोत्पादक घटनाओं, आध्यात्म के पोषक तत्वों; चरितनायकों, शलाकापुरुषों, आदर्श श्रावकों, तपस्वियों तथा पात्रों के जीवन-वर्णन हैं, हीनमामव और अतिमानव के गुणों का विश्लेषण है, संयमित जीवन के स्रोतों का स्पष्टीकरण है, कर्म और नियतिवाद के तत्वों का प्रकाशन है । साथ ही इनमें क्षैगारिक चित्रण, दान-वर्णन, संघ वर्णन, यात्रा - वर्णन, नगर - तीर्थ तथा प्रसिद्ध स्थानों के वर्णन, पूजा की विधियों का वर्णन एवं धार्मिक जीवन और पवित्र श्रावकों और भक्तों के लिए नियमों का निर्धारण, अहिंसा, उपवास, शम, दम, नियम, नीति आदि की गतिविधियों का विश्लेषण और जीवन के विविध मूल तत्वों का सही चित्रण हैं । उपदेशात्मकता इन कवियों की मुख्य प्रवृत्ति है जिसके मूल में इनकी धर्म में दृढ प्रवृत्ति और प्रचार है ।
१७. असाम्प्रदायिक साहित्य :
धर्म का प्रचार और चरितनायकों के आख्यानमूलक साहित्य होने पर भी इन रचनाओं में कहीं भी साम्प्रदायिकता की गंध नहीं है । आज का अतिवादी मानव चाहे इनको वर्तमान जीवन के लिए अव्यावहारिक कहने की भूल कर सकता है, पर इनका तो मुख्य उद्देश्य लोकोपकारिता ही है । आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य की मुख्य दृष्टि चरित - निर्माण, उपकार, दया दान- सत्य और शौच ही हैं । त्याग और शांति तो इसके मूल में ही हैं। अहिंसा और जनजागरण के अनूठे चित्रों के साथ निर्वेद या राम की भावना ही इस साहित्य का प्राण है । इतना सबकुछ होते हुए भी जैन कवि प्रश्न खड़ा करके नहीं चलते। वे उलझी और कठिन समस्याओं का हल अपने दैनिक जीवन में ही ढूंढ निकालते हैं । उनका साहित्य समस्या खड़ी नहीं करता - उसका हल प्रदान करता है। वह जीवन से दूर या अव्यावहारिक नहीं है । वह तो कदम-कदम पर जनजीवन से समझोता करके चलनेवाला है ।
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