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विषयखंड
मन्त्री मण्डन और उसका गौरवशाली वंश
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बन प्रारम्भ हो गई । झांझण बडा स्वाभिमानी और योग्य मन्त्री था । वह नाडूलाई का त्याग कर के माण्डवपुर को राजसभा में पहुँचा | माण्डवपुर के सम्राट् दिल्ली सम्राटों की समता रखते थे। राज्य और राजधानी समृद्धता, कला, साहित्य एवं संगीत में दिल्ली की स्पर्धा रखते थे । माण्डवपुर के तत्कालीन सम्राट् हौशंगशाह ने झांझण शाह का बड़ा सम्मान किया और उसको अपना विश्वासपात्र मन्त्री बनाया । सम्राट् हौशंग पूर्व से ही झांझण से परिचित था और अतः झांझण को राजसभा में योग्य स्थान प्राप्त करने में अधिक विलम्ब नहीं लगा। मांडव में रहकर मन्त्री झांझण ने प्रसिद्ध जैन तीर्थ शत्रुञ्जय, गिरनार और आबू आदि की संघयात्रायें कीं । और इन यात्राओं में उसने पुष्कल द्रव्य व्यय किया । संघयात्राओं में सम्मिलित होने वाले स्वधर्मी बन्धुओं को उत्तम वस्त्र, घोडे एवं मार्ग - व्यय आदि मेंट कर के अच्छी संघ भक्तियां कीं । झांझण मांडवपुर में अधिक काल जीवित नहीं रहा और वह वहां दीर्घकाल पर्यंत रहता तो वह राज और धर्म की अधिक उल्लेखनीय सेवायें करता ।
झांझण के छः पुत्र और उनका परिचय -
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(१) चाहड़ - झांझण के छः पुत्र चाहड, बाहड़, देहड़, पद्मसिंह, आल्हू और पाल्हू थे । छः ही भ्राता बड़े धर्मात्मा और नीतिनिपुण थे । चाहड़ ने श्री जीरापल्लीतीर्थ और अर्बुदतीर्थ (आबू) की संघयात्रा की और प्रत्येक स्वधर्मी बंधु को बहुमूल्य वस्त्र और घोडा भेंट में दिया । इसके चन्द्र और खेमराज नामक दो पुत्र थे 1
(२) बाहड़ – इसके समघर और मण्डन नामक दो पुत्र थे । इसने गिरिनार - तीर्थ की संघयात्रा करके विपुल द्रव्य व्यय किया था ।
(३) देह और उसका विद्वान् पुत्र धनराज देहड ने भी श्री अर्बुदतीर्थ की संघ यात्रा की थी । इसके धनराज अथवा धनपति नामक अति सुयोग्य विद्वान् पुत्र था । धनराज ने भर्तहरि की भांति 'नीति धनद, ' 'शृङ्गार धनद' और 'वैराग्य धनद' नामक तीन ग्रंथ रचे थे । वैराग्य धनद वि. सं. १४९० में माण्डवपुर में समाप्त किया था । देहड की माता का नाम गंगादेवी था ।
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( ४ ) पद्मसिंह - इसने श्री शंखेश्वर तीर्थ की भारी समारोह के साथ संघयात्रा की थी और संघपति का तिलक धारण किया था ।
(५) आल्हू - • इसने मंगलपुर और जीरापल्लीतीर्थ की संघयात्रायें की थीं । जीरापल्लीतीर्थ में इसने सभामण्डप की रचना करवाई ।
(६) पाल्हू - - इसने जिनचन्द्रसूरि की अध्यक्षता में श्री अर्बुद और जीरापल्लीतीर्थ की संघयात्रायें करके अत्यन्त धनव्यय किया था ।
दिनों संघयात्रा का निकालना कष्टसाध्य और विपुल धनसाध्य होता था । कारण कि मार्ग चोर और शत्रुराजाओं के उत्पातों से रिक्त नहीं थे । भारी संघों का
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