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श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ
विविध
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२२. मानवता को संदेश
छंदों तथा अलंकारों के साथ-साथ इन कृतियों की अनुभूतियां प्रौढ साहित्य की प्रतीक हैं। इन संदेशों पर मानव के जीवन-स्तरका उन्नयन कर, उसकी नैतिक निष्ठाओं का निर्माण करना है । अहिंसा, दान, शांति आदि के लिए ये लेखक और कवि सदैव से ही सतर्क रहे हैं। इन्हीं का पाठ पढाना इनका कर्त्तव्य रहा है । अस्तु, हिंसा से दूर, सुख, सौहार्द, एकता, त्याग और आनंद का मुख्य संभार लेकर ये काव्य विजयिनी मानवता के प्रति सुन्दर संदेश देते हैं । अतः आदिकालीन जैन साहित्य अपने में पूर्ण एवं सर्वाश सुन्दर है ।
संक्षेप में हमने ऊपर इस साहित्य की मुख्य प्रवृत्तियों और विशेषताओं का विश्लेषण किया है । एक आवश्यक तत्व का स्पष्टीकरण यहां कर देना उचित प्रतीत होता है की इतना सम्पन्न साहित्य होते हुए भी अबतक विद्वानों में इस साहित्य के प्रति उपेक्षा का दृष्टिकोण क्यों बना रहा !! इसका मूल कारण यह स्पष्ट होता है कि विद्वान् इनमें से अनेक कृतियों को गुजराती भाषा की समझते रहे, क्यों कि वे गुर्जर प्रदेश में लिखी • गई थीं। गुजराती को स्वतंत्र और अलग भाषा मानने के कारण ही इन कृतियों पर विद्वानों ने ध्यान नहीं दिया। प्रेमीजी, डॉ. हीरालाल जैन, प्रभृति जैन, अजैन विद्वानों ने इस
ओर लेख भी लिखे; परन्तु इन कृतियों पर फिर भी हमारी दृष्टि इस ओर नहीं गई । श्री अगरचंद नाहटा ने पिछले कुछ वर्षों से राजस्थानी और प्राचीन गुजराती की कृतियों का यह पारस्परिक संबंध स्पष्ट किया और विभिन्न कृतियों पर 'वीरगाथाकालीन भाषा साहित्य' पर नागरीप्रचारिणी आदि कई पत्रिकाओं के माध्यम से प्रकाश डाला। इसके पूर्व डॉ. सुनीतिकुमार, और डॉ. टेस्सीटोरी भी प्राचीन राजस्थानी और जूनी गुजराती का परस्पर एकत्व स्पष्ट कर चुके थे । पर राजस्थानी के इस आदिकालीन विशाल हिन्दीजैन साहित्य की ओर विद्वानों का ध्यान आकर्षित करने का श्रेय राजस्थान के प्रसिद्ध विद्वान् श्री अगरचंद नाहटा को तथा गुजराती के प्रसिद्ध इतिहासकार और विद्वान् साधक स्वर्गीय श्री मोहनलाल दलीचंद देसाई को है। श्री देशाई का ग्रंथ "जैन गुर्जर कवियो" के तीनों भाग आज आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य के लिए मीलस्तंभ या Mile Stone का कार्य करते हैं। इन कृतियों में कई रचनाएं तो राज स्थान में ही रची गई जिन्हें विद्वान् गुजराती की ही समझते रहे, पर राजस्थानी तो हिन्दी की ही एक बोली है । अतः प्राचीन राजस्थानी और जूनी गुजराती के पृथकपृथक होने की इस भेदबुद्धिका अब निराकरण होजाता है। जूनी गुजराती नाम से कृतियों का समयनिर्धारण और स्थाननिर्धारण के विषय में अबतक हमारी जो धारणा थी वह अनेक विद्वानों के अध्ययन तथा शोधपूर्ण निबंधों से लगभग दूर हो चुकी है । अतः प्राचीन राजस्थानी और जूनी गुजराती की कही जानेवाली सभी रचनाएं आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य की ही है-यह मत पूर्ण तथा असंदिग्ध है। ,
काव्यरूपों को आधार मानकर नीचे इन कृतियोंमें से कुछ कृतियों की एक
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