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श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ
विविध
अतः अपभ्रंश भाषा इन समस्त भाषाओं के वाङ्मय को जन्म देने में निधान लश है, यह स्पष्ट हो जाता है। उत्तर भारत की ये समस्त विभाषाएँ अपभ्रंश से ही उद्भुत होकर विकास को प्राप्त हुई हैं । यवनों के आक्रमण से देश में एक भयानक संक्रांति हुई और इस विप्लव के संक्रमण, से राजस्थान, गुजरात और मध्य देश में अत्यन्त अधिक परिवर्तन हुए । उस समय से लेकर १७ वीं शताब्दी तक जैनेतर विद्वानों के साहित्यरचनाक्रम में एक शिथिलता आगई थी। अतः ऐसे समय में नगर-नगर घूम-घूम कर साहित्यरचनाक्रम अव्याहत रखनेवालों का श्रेय इन जैनविद्वानों को है। उपदेश की भावना से लिखा हुआ यह साहित्य अत्यन्त विशाल है । विशेष रूप से राजस्थानी और गुजराती भाषाओं में इन जैन विद्वानों का यह योगदान वरदान के रूप में सिद्ध हुआ है । श्वेताम्बरी जन साधुओं, कवियों और विद्वानों का क्षेत्र अधिकतर राजस्थान और गुजरात ही रहा और दिगम्बरी कवियों और साधुओं का क्षेत्र दक्षिण भारत और मध्यदेश रहा है । अतः दक्षिण की विभाषाओं में शोध होने पर इन दिगम्बरी विद्वानों का विशाल साहित्य मिलने की संभावना है । इन दोनों सम्प्रदायों के विद्वानों की रचनाएँ जो विभिन्न विभाषाओं में प्रतिपादित हुई हिन्दी साहित्य के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं । उपयोगी ही नहीं, वे स्वयं हिन्दी साहित्य का एक प्रमुख अंग भी हैं। राजस्थानी या गुजराती अनेक भाषाओं की ये रचनाएं श्वेताम्बर मुनियों की ही अधिक हैं। जयपुर तथा आमेर के भंडारों से भी यह जैन साहित्य विशाल रूप में मिला है। परन्त यह अधिकांश साहित्य मध्यकाल की सीमाओं में ही आता है। जहां तक आदिकाल के हिन्दी जैन साहित्य का प्रश्न है, इन भंडारों में अबतक यह प्रचुर प्रमाण में नहीं मिलता । यह भी सम्भव है कि अभीतक भंडारों की सम्यक् शोध नहीं हो पाई हो । अस्तु, प्राप्त रचनाओं के आधार पर ही इन रचनाओं का परिचय दिया जा सकता है । इन उपलब्ध रचनाओं को राजस्थान के विद्वान् प्राचीन - राजस्थानी और गुजरात के विद्वान् प्राचीन गुजराती या जूनी गुजराती भाषा को बतलाते हैं । पर ये रचनाएं वास्तव में अपभ्रंश के उत्तरकाल की हैं। इन्हें आदिकाल में समाविष्ट करने में कोई आपत्ति नहीं की जा सकती । एक ही साथ अनेक प्रवृत्तियों की उपलब्धि होने और उनकी पूर्ण शोध नहीं होने और निश्चित गन्तव्यों के नहीं मिलने से आदिकाल को श्री डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने "स्वतोव्याघातों" का काल कहा हैं । परन्तु जैन साहित्य की इन अनेक रचनाओं की संदिग्धता तथा अप्रामाणिकता का निराकरण हो जाता है । अब तक आदिकाल का यह हिन्दी जैन साहित्य प्रकाश में नहीं आ पाया था। श्री अगरचंद नाहटा “हिन्दी भाषा का निखरा रूप १४ वीं शताद्वी के उत्तरार्ध में हिन्दी अपभ्रंश के प्रभाव से मुक्त बनने लगती है" लिखते हैं।
१४ वीं शताद्वी के पूर्व हमें गोरखनाथ आदि नाथों की रचनाएं उपलब्ध
१. हिन्दी साहित्य का आदिकाल : हजारीप्रसाद द्विवेदी २. देखिए राजेन्द्रसूरि स्मारक-ग्रंथ, पृ. ६२१
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