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विषय खंड
श्री नमस्कार महामंत्र
गीतार्थता यस्यावश्यमस्ति विचाराः येषां श्रुतवर्जिताः न सन्ति ।
उत्सर्गापवाभ्याम् सन्मार्गप्रकाशी ददातु सुखं वाचक गणानां राशिः।) जो परंपरा से आए हुए सूत्रों के अर्थ को यथार्थ रूप से भव्य जनों को कहते हैं । जो साधक हैं. वे उपाध्याय राजा हैं, उन्हों के चरणकमलों में बार बार नमस्कार हो । जिन्हों को गीतार्थता वश में है । जिन्हों के आचार विचार शास्त्रानुगामी हैं । जो उत्सर्ग और अपवाद को ध्यान में रखकर सन्मार्ग का बोध देते हैं । वे उपाध्यायमहाराज हम को सब सुख देवे ।।
साधु :
श्री नमस्कार मन्त्र के पांचवे पद पर श्री साधु महाराज विराजमान हैं। संसार के समस्त प्रपंचों को छोड कर पापजन्य क्रिया कलापों का त्याग करके, पांच महाव्रत पालन रूप बीर प्रतिज्ञा कर समस्त जीवों पर समभाववृति धारण करने वाले, सब को निजात्मवत् समझ कर किसी को भी किसी प्रकार का कष्ट नहीं हो इस प्रकार से चलने वाले। मनसा वाचा कर्मणा किसी का भी अनिष्ट नहीं चाहने वाले । एवं
भाव साधना में संलग्न, भारंड पक्षी के समान अप्रमत्त दशा में रहने वाले. प्रमाद स्थानों असमाधि स्थानों तथा कषायों के आगमन कारणों से सर्वथा पर रहने वाले। उनके लिये यदि किसी ने कुछ भी बनाया तो उसका त्याग करने वाले, चित्त से भी उसकी चाहना नहीं करने वाले, माधुकरी वृती से भिक्षा ग्रहण करने वाले, छोटी बड़ी सब स्त्रियों को मां बहन समझने वाले । ब्रह्मचर्यव्रत के बाधक समस्त स्थानों का त्याग करने वाले । बाह्याभ्यन्तर परिग्रहों का त्याग करने वाले मुनिराज को साधु अथवा श्रमण कहते हैं। श्री नमस्कार मंत्र के पांचवें पद पर ऐसी अनुमोदनीय - वंदनीय साधुता के धारक बाईस परिषहों को जीतने वाले तथा शास्त्रों के अर्थों का चिन्तन मनन अध्ययन - अध्यापन में जीवन यापन करने वाले मुनिराज को नमस्कार किया गया है। अन्तिम थुतकेवली भगवान श्री भदया स्वामी ने श्री आवश्यक नियुक्ति में लिखा है कि
निव्वाण साहए जोगे, जम्हा साहन्ति साहुणो ।
समा य सव्व भूयेसु, तम्हा वे भाव साहुणो ॥ निर्माण साधक योगों की क्रियाओं को जो साधते हैं, और सब प्राणियों पर समभाव धारण करते हैं वे भाव साधर हैं।
१नमो लोए सव्व साहूणं लोक शद से सप्तनी का एक वचन प्रत्यय ङि आया। लोक कि बना । लशकादिते सूत्र से ङ् की इत् संज्ञा और तस्य लोपः सूत्र से लोप होने पर लोक +इ रहा । तब आदगुणः ।६।१८६। सूत्र से पूर्व पर के स्थान में गुणादेश होने पर लोके बना। फिर क ग चज त द प य वां प्रायो लूक ।।१।१७७। सूत्र से ककार का लोप होने पर लोए यह प्राकृत रूप बना।
सर्व शद्ध स प्रथमा का बहुवचन प्रत्यय जस आया जस:शी ७१।१७। सत्र से जस के स्थान
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