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श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ
विविध
श्री आचारांग, सूत्रकृतांगादि ग्यारह अंग, श्री औपपातिकादि बारह अंग, इन तेईस आगमों के मर्म को जाननेवाले तथा उनका विधिपूर्वक मुनिवरों को अध्ययन करानेवाले और चरण सित्तरी तथा करण सित्तरी इन पच्चीस गुणोंके धारक श्री उपाध्यायजी महाराज होते हैं । ११ अंग और १२ उपांगों का वर्णन श्री अभिधान राजेन्द्र कोष के प्रथम भाग की प्रस्तावना में आया हैं । वहीं से देखना चाहिये । चरण सित्तरी और करण सित्तरी इस प्रकार है -
चरण सित्तरी
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वय समण संजम वेयावच्चं च बंभगुत्तिओ । नाणार तियं तव कोहं, निग्गहाई चरणमेयं ॥
५ महाव्रत, १० प्रकार (क्षमा, मार्दव, आर्जव, निर्लोभता, तप, संयम, सत्य, शौच, आकिंचन और ब्रह्मचर्य ) का यति धर्म । १७ प्रकार का संयम १० प्रकार का वैयावृत्य । ९ प्रकार ब्रह्मचर्य । ३ प्रकार का ज्ञान । १२ प्रकार का तप । ४ कषाय निग्रह । इस प्रकार सत्तर भेद चरण सित्तरी के होते हैं ।
करण सित्तरी
पिंड़विसोहि समई, भावय पड़िमाय इन्दिय निरोहो । पडिलेहण गुत्तिओ अभिग्गहं चेव करणं तु ।
४ पिंडविशुद्धि, ५ समिति, १२ भावना, १२ प्रतिमा, ५ इन्द्रियों का निग्रह, २५ पडिलेहण, ३ गुप्ती, ४ अभिग्रह इस प्रकार सत्तर भेद करण सित्तरी के होते हैं ।
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चरण सित्तरी और करण सित्तरी को स्वयं पालते हैं और श्रमण संघ को पलाते हुवे श्री उपाध्यायजी महाराज विचरण करते हैं । कोई श्रमण यदि चरित्र पालन में शिथिल होता है तो उसे सारणा, वारणा, चोयणा और पडिचोयणा द्वारा समझा 'कर पुनः उसे अंगिकृत संयम धर्म पालन में प्रयत्नशील करते हैं, यदि कोई पर समय का पण्डित किसी प्रकार की चर्चावार्ता करने के लिये आता है, तो उसे आप अपने ज्ञान बल से निरुत्तर करते हैं, और स्व समय के महत्व को बढाते हैं । ऐसे अनेक गुण सम्पन्न श्री उपाध्याय जी महाराज के गुणों का स्मरण-वन्दन करते हुवे, आचार्य प्रवर श्री मद्राजेन्द्र सूरिजी महाराज ने श्रीसिद्धचक्र (नवपद ) पूजन में फरमाया है कि
सुत्ताण पाठं सुपरंपराओ, जहागयं तं भविणं चिराओ । जे साहगा ते उवझाय राया, नमो नमो तस्स पदस्स पाया ॥ १ ॥ गीयत्थता जस्स अवस्स अत्थि, विहार जेसिं सुय वज्जणत्थि । उस्सग्गियरेण समग्गभासी, दिंतु सुहं वायगणाण रासी ॥ २ ॥ सूत्राणां पाठं सुपरंपरातः यथागतं तं भव्यानां निवेदयन्ति । साधकाः ते उपाध्याय राजाः नमो नमः तेषां पद्भ्यः ।
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