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श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ
विविध
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सर्वतः मैथुन विरमण, और सर्वतः परिग्रह विरमण इन पांचों महाव्रतों से युक्त पांच प्रकार के आचारों का पालन करने में समर्थ पांच समितियों तथा तीन गुप्तियों से युक्त इस प्रकार छत्तीस गुणों के धारक गुरु अर्थात् आचार्य महाराज हमारे गुरु हैं ।
१४४४ प्रन्थ प्रणेता जैन शासन नभोमणी आचार्य वर्य श्रीमद् हरिभद्र सूरिजी महाराजने संबोध प्रकरण में आचार्य के ३६ गुणों का वर्णन अनेक प्रकार से तथा गुरुपद का विवेचन भी विस्तारपूर्वक किया है । गच्छाचार पयन्ना में भी आचार्य के अतिशयों तथा योग्यायोग्यत्व पर विस्तृत विवेचन किया है ।
प्रश्न-नमो आयरियाणं के स्थान पर नमो आइरियाणं क्यों नहीं बोला जाता है ?
उत्तर-श्रीमहानिशीथ सूत्र के तीसरे अध्ययन में, पन्चमांग श्रीभगवती सूत्र के मंगलाचरण में, श्री आवश्यक सूत्र नियुक्ति और श्री गच्छाचार पयन्ना आदि अनेक आगम प्रन्थों में आयरियाणं ही लिखा है। न कि आइरियाणं । अर्थ शुद्धि की दृष्टि से भी आयरियाणं ही लिखना ठीक है।
प्रश्न-आचार्य सर्वक्ष नहीं है फिर भी उनको “ तित्थयर समो सूरि " कहकर तीर्थकर की उपमा क्यों दी गई है ? क्या यह अनुचित नहीं है ? ।
उत्तर-श्री श्रमण भगवान महावीर देव ने श्री गौतम स्वामि के प्रश्न के उत्तर में जो भावाचार्य को तीर्थकर के समान कहा है वह अनुचित नहीं अपितु उचित है। क्यों कि भावाचार्य आगमज्ञ एवं समयज्ञ होते है। प्रत्येक प्रकार की आचरणा का आचरण वे आगमानुसार ही कहते हैं । आगमोक्त वस्तु तत्व को निर्भयता पूर्वक जनता में तर्क युक्त रीति से प्रकाशित करते हैं । कर्म रोग से आक्रान्त जीवों को जिनेन्द्र शरण देकर शुद्ध देव गुरु और धर्मरूप उपाश्य त्रयी, सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन और सम्यग् चरित्र रूप तत्व प्रयी का दर्शन करा कर जीवनोत्कर्ष का मार्ग दिखलाते हैं । अतः वे अपने लिये तो तीर्थंकर के समान ही हैं। इसी से उन भावाचार्य महाराज को यह उपमा दी गई है। शेष नामाचार्य, द्रव्याचार्य और स्थापनाचार्य को नहीं। आचार्यवयं श्रीमद राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराजने भी श्री नवपद पूजा में लिखा है कि
जिणाण आणम्मि मणं हि जस्स णमो णमो सूरि दिवायरस्स। छत्तीस वग्गेण गुणायरस्स, आयारमग्गं सुपयासयस्स ॥ सूरिवरा तित्थयरा सरीसा, जिणिन्दमग्गं मिणयंति सिस्सा। सुतत्थ भावाण समं पयासी, ममं मणंसी वसियो णिरासी ॥ (जिनस्य आशायां यस्य मनो वर्तते तस्म सूरि दिवाकराय नमो नमः पड्रिंशद्वर्गेण गुणाकराय आचारमार्गस्य सुप्रकाशकाय - सूरिवराः तीर्थकराः सहशाः जिनेन्द्र मार्ग वहन्ति शिरसा । सूत्रार्थ भावानां सममेव प्रकाशकः मम मनसि वासतो ऽ निराशी।)
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