________________
७०.
श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ
विविध
सिध्द, बुध्द, पारगत, परम्परागत,. कर्मकवचोन्मुक्त, अजर अमर और असंगत ये. नाम सिध्द भगवन्तों के हैं ।
आचार्य:
चरम श्रुत केवली भगवान ... भद्रबाहु स्वामी. मे श्री आवश्यक सूत्र नियुक्ति में आचार्य काः लक्षण लिखा हैं -
पंच विहं आयारं, आयरमाणा तहा पभाया संता।
आयारं दंसंता, आयरिया. तेण' वुञ्चन्ति ॥ पांच प्रकार के आचार को स्वयं पालन करने वाले, प्रयत्न पूर्वक दूसरों के सामने उन आचार
रों को प्रकाशित करने वाले तथा श्रमणों को उन पांच प्रकार के आचारों को दिखलाने (उनके पालनार्थ उत्सर्गापवादादि विधिमार्गों का गूढार्थों को प्रयत्न पूर्वक समझाने) वाले 'आचार्य' ” महाराज, कहलाते है ॥
अरिहंत भगवान के द्वारा प्रकाशित तत्वों का जनता में कुशलता पूर्वक प्रसार करना, संघ को उनके दिखलाए मार्ग पर चलाना, आत्मसाधक मुनिवरों को सारणा वारणा चोयणाः पडिचोयणा द्वारा शिक्षा देना' यह कार्य आचार्य महाराज का होता है। आचार्य महाराज स्व-पर सिद्धान्त निपुण समयज्ञ. आचारवान् द्रव्य क्षेत्र काल भाव के शाता और प्रकृति से सौम्य होते हैं। सांसारिक प्राणियों के लिये आचार्य महाराजा भाव वैद्य हैं। जिस प्रकार भयंकर से भयंकर रोगों से आक्रान्त रोगी कुशल वैद्य से रोग की. उपशमन कर्ता औषधी लेकर पथ्यापथ्य का जैसा वैद्यनें कहा वैसा पालन. कर आहार विहार में सावधानताः रख कर थोडे समय में ही रोगी रोग से मुक्त
१ आयरियाणं (आचार्येभ्यः)
चर धातु से आङ् उपसर्ग. लगमे पर आऊ + चर् बना। लशक्वतद्धित" सूत्रा से ङ् की इत् संज्ञा ओर “ तस्यलोपः" सत्र से ङ् का लोप आचार बना “ ऋहलोण्यत् "। ३।११२२४। 'त्र से ण्यत् प्रत्ययः हुवा आचर+ ण्यत् बनाः "चुटु” ११३१७। ण् की इत् संज्ञा तथा तू की “हलन्त्यतम् ॥ १॥३३॥ सूत्र से श्त् संज्ञा और दोनो का “ सस्यलोप" से. लोप होने पर भाच +4 बमा । “अत उपधायाः " ७।२।११६। सूत्र से बृध्दी होने पर तथा सबका सम्मेलन करने पर ". जातुम्बिका न्यायेन रेफस्योर्ध्वगमनम् ” न्याय से रेफ् का ऊर्ध्वगमन होने पर सिद्ध रूप आचार्य बनता है।
“स्याद् भव्य चैत्य चौर्य समेषु वात् " ८२।१०७) सूत्र से यकार से पूर्व इत् का आगम तथा अनुवन्ध. का लोप होने पर इको रेफ् में मिलाने से आचारिय बना। "कगच जतद पयवां प्रायो लुक्"८११७७, सूत्र-शे च कारका लोप “ आचार्येचोच्च" ८११७३। सत्र से के लोप होने पर शेष रहे आ के स्थान पर अत् । अब!यः. श्रति । ८ १८० सूत्र से अ के स्थान पर यकार होने पर आयरिय बनता है। फिर नमः के योग में शक्तार्थवष ङ नमः स्वस्ति स्वधामिः २१२१२५। सूत्र से चतुर्थी का भ्यस आया और चतुर्थाः षष्ठीः सत्र से भ्यस के स्थान पर आम आया आयरिय + आम हुवा । जस शस् ङ सित्तो दो द्धानि दीर्घः। सत्र से अजन्ताग को दीर्घ । टा. भामोर्णः: आम के आ का. ण और मौजुस्वारः से अनय.मकार का अनुस्वार होने आयरियाणं सिद्ध होता है ।।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org