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श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ
विविध
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जैसा हो वैसा उपासक भी उसकी उपासना से हो जाना चाहिये । आचार्यप्रवर श्री मानतुंगसूरि ने श्री भक्तामर स्तोत्र के दसवें काव्य में इसी आशय को प्रकाशित किया है ----
नात्यद्भूतं भुवनभूषण भूतनाथ, भूतैर्गुणैर्मुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः ।। तुत्या भवन्ति भवतो ननुतेन किंवा, भूत्याश्रितं य इ ह नात्मसमं करोति ॥१०॥
हे जगद् भूषण, हे प्राणियों के स्वामी भगवान् ? आपके सत्य और महान् गुणों की स्तुति करने वाले मनुष्य आपके ही समान हो जाते है। इसमे कुछ भी आश्चर्य नहीं है, क्यों कि जो कोई स्वामी अपले आश्रित उपासक को अपने समान यदि नहीं बना लेता उसके स्वामीपन से क्या लाभ ? अर्थात् कुछ नहीं।
हाँतो अन्य देवी देवता सकामी समानी सक्रोधी सलोभी एवं रागद्वेष से हुक्त हैं और वीतराग इन से रहित। अन्य देवी देवताओंकी उपासना से हमको वही प्राप्त होगा जो उनमें है याने काम क्रोध लोभ राग द्वेषादि ही प्राप्त होगें। और वीतराग की उपासना से उपासक काम क्रोध मान माया और राग द्वेषादि से दूर होकर वीतरागत्व को प्राप्त करके स्वयं भी वीतराग बन जायगा । मुनि प्रवर श्री यशो विजयजीने भी कहा है कि
इलि का भ्रमरी ध्यानात्, भ्रमरीत्वं यथाथते ।
तथा ध्यायन् परमात्मानं, परमात्मत्वंमाप्नुयात् ॥ भवरी का निरन्तर ध्यान करने से जिस प्रकार इलिकाएँ भवरित्व को प्राप्त होती हैं उसी प्रकार परमात्मा ( वीतराग) का निरंतर ध्यान करने से आत्मा भी परमात्मा बन जाती है।
वीतराग की सम्यग् उपासना करने से जब हमारी आत्मा वीतरागत्व को भी प्राप्त कर लेती है, तो अन्य सामान्य वस्तु ओं का प्राप्त होना कोई आश्चर्य का कारण नहीं है। अतः सब प्रपंचों का त्याग कर श्री वीतराग की उपासना के वीजभूत सकलागम रहस्यभुत महामंत्राधिराज श्री नमस्कार महामंत्र का निष्काम भक्ति से स्मरण करना ही हमारे लिये लाभप्रद है।
___ अन्त में निबन्ध में यदि कुछ भी अयुक्त लिखा गया हो तो उसके लिये त्रिकरण त्रियोग से मिथ्या दुष्कृत्य की चाहना करते हुए वाचको से निवेदन है कि अपने हाथों अपनी शक्ति और समय का वृथा साधनाओ में व्यय नं करते हुए सत्यकी निष्पक्ष भाव से गवेषणा कर के उसको सत्य मान कर के आत्मसाधना के मार्ग में आगे बढ़ें यही आशा ! इत्यलम् विस्तरेण ।
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