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श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ
विविध
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है । जैनदर्शन में प्रत्यक्ष के नियामक दो तत्त्व है । आगमीय परम्परा के अनुसार तो एक मात्र आत्मतत्त्व सापेक्षत्त्व ही प्रत्यक्ष का नियामक है ।
दुसरा प्रत्यक्ष का नियामक--तार्किक मान्यतानुसार आत्मा से अन्य इन्द्रिय मनोजन्य न्याय -वैशेषिक आदि दर्शनान्तर सम्मत सन्निकर्षजन्य भी फलित होता है ।
सारांश यहि निकला कि आत्मस्वरूप के विषय में उसका ज्ञान स्वप्रकाशी और परप्रकाशी या उभय प्रकाशी फिर वह किसी की मान्यतामे निर्विकल्प और सविकल्प माना जाता है । जैनपरम्परा के अनुसार लौकिक सांव्यवहारिक, अलौकिक-पारमार्थिक प्रत्यक्ष उभयरूप है । क्यों कि जैनदर्शन में जो अवधिर्दशन तथा केवलदर्शन नामक सामान्य बोध माना जाता है वह अलौकिक निर्विकल्प ही कहा गया है और जो अवधि ज्ञान, मनः पर्यायज्ञान एवं केवलज्ञानरूप विशेष बोध है वही सविकल्प है ।
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