________________
विषय संर
प्रवृत्ति और निवृत्ति
-
जीव के साथ अपराध किया, करवाया या अनुमोदित किया हो तो मैं अन्तःकरण से क्षमाता है, वह मुझे क्षमा करें, समस्त प्राणियों के साथ मेरा मैत्रीय भाव है, किसी भी प्राणी के साथ मेरा वैर-विरोध भाव नहीं है। इस शुभ प्रवृत्ति से कर्मों की आलोचना होती है । अशुभ प्रवृत्ति के आचरण से जीव अधोगति को प्राप्त करता है । जीवहिंसा करने की प्रवृत्ति अवश्य नरक निगोद में ले जाती है । चोर चोरी करने की प्रवृत्ति करता है और पर द्रव्य को चुरा ले जाता है-यह राज-दण्ड का भोगी बनता है। जूए की प्रवृत्ति धन हीन बनाती है, चोरी करवाती है, झूठ खुलवाती है, मान हानि करवाती है, व्यभिचार सेवन करवाती है । कोष, मान, माया, लोभ, मोह ईर्षादि की प्रवृत्ति अशुभ कमों के समूह से जीव को चोराशी लक्ष जीवा योनी में भ्रमण करवाती है । इस लिये अशुभ प्रवृत्ति का सर्वथा त्याग करना चाहिये । शुभ प्रवृत्ति में जो मनुष्य अपने जीवन को ढालता है वह मनुष्य परम पावन बनता है।
एगोहं नथि मे कोई नाह मन्त्रस्सकस्सई, - मैं ही हूँ, मेरा कोई नहीं, किसी के साथ मेरा राग-द्वेष - कषाय आदि नहीं है। इस प्रकार की मध्यस्थ भावना में जीव की जब प्रवृत्ति होती है तभी जीव अपनी निवृत्तिमय आत्मा में रमण करता हुआ भव बन्धों से मुक्त होता है। यह निवृत्ति स्थान है।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org