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तुलनात्मक दृष्टि से जैन दर्शन लेखक-मास्टर खुबचंद केशवलाल, सिरोही (राजस्थान ).
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संसारके क्षणिक सुखका त्याग करके कठोर संयमका पालन करना, जीवनको क्रमशः विशुद्ध बनाना, तथा मोक्ष प्राप्त करना यही भारतवर्षके प्रत्येक दर्शनका उद्देश्य है । परन्तु इसके आधार पर यह नहीं कहा जा सकता है कि सभी दर्शन तत्त्वतः एक ही है! बाह्य रूपसे किन्हीं विशेष विषयोंकी मान्यतामें समानता दृष्टिगोचर होनेपर भी प्रत्येक दर्शन तथा उसके सिद्धान्त भिन्न एवं स्वतंत्र है । सामान्यतः भारतवर्षके दार्शनिक जगतमें जैनदर्शन प्रतिष्ठित पद भोग रहा है, और विशेषकर जैन दर्शन एक संपूर्ण दर्शन भी कहा जा सकता है । तत्त्वविद्याके सभी अंग इसमें उपलब्ध हैं । जैनदर्शन कुछ बातोंमें बौद्ध वेदान्त, सांख्य, चार्वाक और न्याय दर्शनसे मिलता-जुलता दिखता है, परन्तु वास्तवमें यह एक स्वतन्त्रदर्शन है। अपने बहुविध तत्त्वोंके विषयमे यह अपना। संपूर्ण तथा स्वतंत्र अस्तित्व रखता है।
जैन तथा बौद्ध जीवके सुख-दुख कर्माधीन हैं। जो कुछ करते हैं, और जो भी किया है, उसके परिणामस्वरूप ही सुखदुःखकी प्राप्ति होती है। निःसार तथा मायावी भोगविलास पामर जीवोंको किंकर्तव्यविमूढ बना देता है । सांसारिक सुखके पीछे दौड़नेवाला जीव जन्म जन्मान्तरपरम्परा में फँसता है । इस अविराम दुःख और क्लेशसे छुटकारा प्राप्त करना। हो तो हमें कर्मके बंधन तोडने चाहिये । कर्मसता में से छूटनेसे पूर्व हमें कुकर्मके स्थानपर सत्कर्मकी स्थापना करनी चाहिये । अर्थात् भोगलालसा के स्थानपर वैराग्य, संयम, तप, जप और अहिंसा आदि का आचरण करना चाहिये । इस प्रकारकी मान्यता जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म दोनोंमें समान है । वेद दर्शनके अद्वैतवादको अमान्य करनेमें, चार्वाक मतके इन्द्रिय भोगविलासको तिरस्कारपूर्वक निकालनेमें, तथा अहिंसा और वैराग्य ग्रहण करने में जैन और बौद्धदर्शन दोनों एक ही मत रखते हैं, परन्तु बाहरसे समान दृष्टि गोचर होते जैनदर्शन तथा बौद्धदर्शनमें भारी भेद है। बौद्ध दर्शनकी जडमें जो निर्बलता। हम देखते हैं, वह जैनदर्शन में नहीं है । बौद्ध दर्शनका अहिंसा तथा त्याग का आग्रह समझमें आसकता है, कर्मबंधनको छदेनकी बातभी अर्थ रखती है, परन्तु हम है क्या? जिसका परिचय वे परमपदके रूपमें देते हैं, ओर जिस वे साध्य मानते हैं-वह है क्या? इनके प्रत्युत्तरमें वे कहते हैं कि “हम शून्य" अर्थात् कुछ नहीं हैं, तब प्रश्न उठताः है कि क्या हमें सदैव अंधकारमें ही भटकना है? और अन्तमें भी क्या असार ऐसे महाशून्यमें ही सबको विलीन हो जाना हैं ! तो फिर महाशून्यके हेतु जीवनमें सामान्य सुख क्यों वृथा जाने दें ? यह भले ही निस्सार हो, परन्तु उसके पश्चात् जो कुछ भी
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