Book Title: Yatindrasuri Abhinandan Granth
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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आचार्य श्री की साहित्य-साधना लेखक : निहालचंद फोजमलजी जैन, खुडाला. मंत्री,श्री राजेंद्रप्रवचन कार्यालय
भारतीय संस्कृति विभन्न धर्मों, मतों व जातियों की संस्कृति का समन्वय है। भिन्न २ समय में इस संस्कृति ने अपना स्वरूप जरूर बदला; लेकिन इसके साथ ही उसने इन संस्कृतियों को अपने अन्दर आत्मसात् कर लिया । वैदिक काल में हिन्दू और जैन धर्म की कला, दर्शन, साहित्य व शिल्पकला का भारतीय संस्कृति पर प्रभुत्व था । धीरे २ बुद्ध धर्म के विकाश के साथ ही भारतीय संस्कृति विश्व-संस्कृति बन गई । भारतवर्ष पर समय २ पर उत्तर-पश्चिम के पहाड़ी दरों से आक्रमण हुए और आक्रान्तों ने भारतीय संस्कृति को समूल नाश करने व उसका स्थान अपनी संस्कृति को देने के विफल प्रयत्न किये; लेकिन भारतीय संस्कृति ने अपनी महानता, विशालता और परिपक्वता के कारण खुद आत्मसात् होने के बजाय, आक्रान्त संस्कृति को आत्मसात् कर लिया ।
जैन संस्कृति अपनी कला व साहित्य की दृष्टि से हमेशा अग्रगण्य रही । मुसलमानों के आक्रमणों से जैन संस्कृति को बहुत हानि हुई ।
किसी भी जाति अथवा धर्म के उत्थान व पतन में उस जाति के साहित्य का प्रमुख स्थान रहा है। जब २ जैन धर्म मरणासन्न अवस्था में पहुँचा, महान् तीर्थकरों व महान् विभूतियों ने समय २ पर जन्म लेकर समाज व धर्म की बुराइयों को दूर किया । चौवीस तीर्थकरों का चरित्र हमें बताता है कि भिन्न २ समय में तीर्थंकरों ने सारी दनिया को बोध दिया और श्रमणसंघ की स्थापना की। उनकी मक्ति के बाद उनके गणधरों ने उनके महान वचनों व उपदेशों को साहित्य का रूप दिया । हिन्दूकाल व मुगलकाल में भी अनेक, महान् आचार्य हुए जिन्होंने साहित्य के बल पर सम्पूर्ण श्रमण-संघ को संगठित व जाग्रत किया ।
मुगल साम्राज्य के ह्रास के साथ ही साथ जैनधर्म पर साधुओं का प्रभुत्व कम हो गया और यति लोगों का जैन-संस्कृति, साहित्य व कला पर आधिपत्य हो गया। लेकिन यतियों के प्रभाव में आकर जैन-धर्म का पतन होने लगा और समाज आलस्य, विलास और रूढिवाद की ओर अग्रसर हुआ । ऐसे विकट समय में दो महान् आचार्यों ने जन्म लिया जिन्होंने जैन-धर्म पर से यतियों का जुड़ा उतार कर उसे वापिस असली स्वरूप प्रदान किया । उन महान् नेताओं के नाम हैं (१) श्री आत्मारामजी (२) विजयराजेन्द्रसूरिजी। राजेन्द्रसूरिजी ने अपने जीवन काल में दो महान कार्य किये-(१) जैन-धर्म में से गन्दगी निकाल कर उसे नया व असली स्वरूप दिया । (२) प्राकृत, संस्कृत, पाली व मागधी में लिखित जैन साहित्य के मर्म
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