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द्वितीयः
बराङ्ग चरितम्
ते मन्त्रिमुख्या विदितार्थतत्त्वा अनन्तचित्रा जितदेवसाह्वाः । आहतमात्रा वसुधेश्वरेण यथावियस्थानमुपोपविष्टाः॥ १४ ॥ सत्कृत्य तान्स्मेरमुखः स राजा प्रोवाच वाचं मधुरार्थगर्भाम् । आपूर्यते यौवनमात्मसूनोः कृष्णेतरे पक्ष इवेन्दुबिम्बम् ॥ १५ ॥ व्यायामविद्यासु कृतप्रयोगो नोतौर कृतो सर्वकलाविधिज्ञः । वृद्धोपसेवाभिरतिहितात्मा सुबुद्धिमान् पौरुषवान्कुमारः ॥ १६ ॥ संभाव्यरूप: स्वगुणैर्महीनः पुष्पैः फलानामिव जन्मवेत्ता। रूपश्रियान इव द्वितीयस्तदस्य चिन्त्यं खलु दारकर्म ॥ १७ ॥
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मंत्रशाला प्रयाण राजनीति, अर्थशास्त्र तथा अन्य शास्त्रोंके प्रकाण्ड पण्डित प्रधानमन्त्री लोग जिनके क्रमशः अनन्तसेन, चित्रसेन, अजितसेन और देवसेन नाम थे, महाराजके द्वारा बुलाये जाते ही मन्त्रशालामें आ पहुँचे और अपने अपने पदके अनुसार यथास्थान जा बैठे ।। १४ ॥
उनके अभिवादनको स्वीकार करनेके पश्चात् मुस्कराते हुए राजाने उनका यथायोग्य कुशल समाचार आदि पूछकर स्वागत किया। इसके बाद विचारणीय विषयकी महत्ताके कारण उसने गम्भीर और मधुर वाणीको निम्नप्रकारसे कहना प्रारम्भ
किया
मंत्रणा हे मन्त्रिवर ! अपने राजकुमारका यौवन (कृष्णके उल्टे पक्ष ) शुक्लपक्षके चन्द्रमाके समान पूर्णताको प्राप्त हो रहा है ॥ १५ ॥
साथ ही साथ आपके राजकुमारने सब विद्याओं और व्यायामोंको केवल पढ़ा ही नहीं है अपितु उनका आचरण करके प्रायोगिक अनुभव भी प्राप्त किया है, नीतिशास्त्रका कोई भी अंग ऐसा नहीं जिसका कुमारको अध्ययन करना हो । समस्त ललित कलाओं और विधि-विधानोंमें पारंगत हैं। गुरुजनों और वृद्धजनोंकी सेवाका बड़ा चाव है। संसार कल्याणकी भावनाका तो उन्हें प्रतिमूर्ति समझिये । वह कितना बुद्धिमान् पुरुषार्थी है यह आप लोग मुझसे ज्यादा जानते हैं ।। १६ ।।
उसका रूप देखते ही बनता है। उसके साहस, वीरता, सेवापरायणता, सहानुभूति, आदि सद्गुण तो ऐसे हैं कि उसे सारी पृथ्वीका एक-छत्र राजा होना चाहिये । भविष्यको ऐसा सटीक आंकता है जैसे कोई फूलोंको देखकर फलोंका अनुमान १. म अनन्तचि त्राजित [धीवराह्वाः]। २. म गीतौ। ३. म कृतिः ।
PIPICHARPAHIMAHIPAHISHAH
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