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द्वितीयः
वराङ्ग चरितम्
सर्गः
तस्मिन्स्वकाले' स्वयमेव कश्चिच्छेष्ठी पुरस्यास्य कुमारभक्त्या। अतकितोपस्थितजातरागः समाहितात्मेत्थमुवाच वाचम् ॥९॥ कुलेन शोलेन पराक्रमेण ज्ञानेन धर्मेण नयेन चापि । समृद्धपुर्याः पतिरुत्तमश्रीवत्समानो धृतिषेणराजा ॥ १०॥ अतुल्यनामा (?) किल तस्य भार्या विशालवंशा वरधर्ममूर्तिः । तयोः सुता कीर्तिगुणोपपन्ना बभूव नाम्नानुपमा विनीता ॥ ११ ॥ विभूषणानामतिभूषणेन
विरूपतामानवयौवनेन । किमत्र तद्वर्णनयातिमात्रं सा देवकन्या स्वयमागतैव ॥ १२ ॥ श्रुत्वा वचस्तस्य वणिक्तमस्य सोऽत्यर्थमर्थानुगतं मनोज्ञम् । तं पूजयित्वा विधिवत्ततस्तां स्वां मन्त्रशाला पुनराविवेश ॥ १३ ॥
जिस समय राजा रानी उक्त विचारमें मग्न थे उसी समय नगरका कोई सेठ जिसके आनेकी कल्पना भी न की जा सकती थी, मानो राजकुमारकी भक्तिसे ही प्रेरित होकर राजमहल में जा पहुँचा। राजकुमारको देखते ही उसका स्नेह उमड़ पड़ा था तो भी उसने अपने आपको सम्हालकर निम्न प्रकारसे कहना प्रारम्भ किया था ॥९॥
कुमारी अनुपमा 'हे महाराज समृद्धपुरीके एकछत्र राजा धृतिसेन अपरिमित विभव और सम्पत्तिके अधिपति हैं। इसके अतिरिक्त जहाँतक कुलीनता, स्वभाव और संयम, तेज और पराक्रम, विद्या और बुद्धि, धर्म, कर्तव्यपालन, न्याय और नीतिका सम्बन्ध है, वे हर प्रकारसे आपके ही समान हैं ।। १० ॥
महाराज धृतिसेनकी अतुला नामकी पट्टरानी है जो निर्दोष धर्माचरणकी सजीव मूर्ति है, उनका मातृ-पितृकुल भी एक विशाल और विख्यात राजवंश है। इन दोनोंके अनुपमा नामकी राजपुत्री है जो कान्ति, कीर्ति, दया आदि सद्गुणोंका भण्डार होते हुए भी अत्यन्त विनम्र और शिष्ट है ।। ११ ।।
हे महाराज ? उस राजकुमारीके शरीर, सौन्दर्य और सद्गुणोंका अलग अलग विस्तारपूर्वक वर्णन करनेसे क्या लाभ ? बस संक्षेपमें यही समझिये कि आभूषणोंके भी उत्तम आभूषण नवयौवनके प्रथम उभारने उसकी गुण-रूप लक्ष्मीको इतना अधिक
बढ़ा दिया है कि उसे देखते ही ऐसा लगता है मानों साझात् देवकन्या ही इस पृथ्वीपर उतर आयी है ।। १२ ।। Ss सेठोंके प्रधानके अत्यन्त अर्थपूर्ण, गम्भीर और मनोहर वचन सुनकर राजाने उसकी मर्यादाके अनुकूल सेठका स्वागत
सत्कार किया। सेठको प्रेमपूर्वक विदा करके वह अपनी प्रसिद्ध मन्त्रशाला में चला गया ।। १३ ।। १.[तस्मिश्च काले.]। २. [धृतिषणराजः ] । ३. [ विरूपताया नव° ]।
HIRGAORAKHIRAIGARHEIRDEEPARATI
HARIHARPURWANISHTHHHHHH
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