Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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रथनेमी - राजीमती का उद्बोधन
कठिन शब्दार्थ - भद्दे - हे भद्रे ! सुरूवे - हे सुरूपे ! चारुभासिणि - हे मधुरभाषिणी, भयाहि - स्वीकार कर लो, सुयणु - हे सुन्दरांगी, पीला - पीड़ा ।
भावार्थ - हे भद्रे ! हे कल्याणकारिणि ! हे सुन्दर रूप वाली! हे मनोहर बोलने वाली ! हे सुतनु ! हे श्रेष्ठ शरीर वाली! मैं रथनेमि हूँ | तू मुझे सेवन कर । तुझे किसी प्रकार की पीड़ा नहीं होगी, अर्थात् सुन्दरि ! तू निर्भय होकर मेरे समागम में आ । तुझे किसी प्रकार का कष्ट नहीं होगा । एहि ता भुंजिमो भोए, माणुस्सं खु सुदुल्लहं ।
भुत्तभोगी तओ पच्छा, जिणमग्गं चरिस्सामो ॥ ३८ ॥
कठिन शब्दार्थ - एहि - आओ, ता - पहले, भुंजिमो - भोगे, भोए - भोगों को, माणुस्सं - मनुष्य जन्म, खु - निश्चय, सुदुल्लहं - अत्यंत दुर्लभ, भुत्तभोगी - भोगों को भोगने के, जिणमग्गं - जिनेश्वर के मार्ग का, चरिस्सामो - आचरण करेंगे।
भावार्थ - निश्चय ही मनुष्य जन्म का मिलना अत्यन्त दुर्लभ है इसलिए हे भद्रे ! इधर आओ पहले हम दोनों भोगों का उपभोग करें फिर भुक्तभोगी होकर बाद में अपन दोनों जिनेन्द्र भगवान् के मार्ग का अनुसरण करेंगे।
विवेचन प्रस्तुत तीन गाथाओं में कामासक्त एवं विषय सेवन - परवश बने हुए रथनेमि द्वारा राजीमती से भोग याचना का निरूपण किया गया है।
राजीमती का उद्बोधन
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दण रहणेमिं तं भग्गुजोय-पराइयं ।
राईमई असंभंता, अप्पाणं संवरे तहिं ॥ ३६ ॥
कठिन शब्दार्थ - भग्गुज्जोय - भग्नोद्योग उत्साह हीन, पराइयं - पराजित, असंभंतासंभ्रांत न हुई, अप्पाणं - अपने शरीर को, संवरे
आवृत्त कर लिया।
भावार्थ - संयम में हतोत्साह बने हुए और स्त्रीपरीषह से पराजित उस रथनेमि को देख कर भयरहित बनी हुई राजीमती ने उसी समय गुफा में अपने शरीर को वस्त्र से ढक लिया। अहं सा रायवरकण्णा, सुट्ठिया नियमव्वए ।
जाई कुलं च सीलं च, रक्खमाणी तयं वए ॥ ४० ॥
कठिन शब्दार्थ रायवरकण्णा - श्रेष्ठ राजकन्या, सुट्ठिया सुस्थित, णियमव्वए -
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