Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 410
________________ ३८५ . जीवाजीव विभक्ति - चतुरिन्द्रिय त्रस-स्वरूप 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अच्छिरोडए - अक्षिरोडक, विचित्ते - विचित्र, चित्तपत्तए - चित्रपत्रक, ओहिंजलिया - उपधिजलक, जलकारी - जलकारी, णियया - नीचक, तंबगाइया - ताम्रक या तम्बकायिक। ___ भावार्थ - चउरिन्द्रिय जीवों के भेद - अन्धिक, पोतिक, मक्षिका (मक्खी), मशकमच्छर, भ्रमर, कीड़ा, पतंगिया, ढिंकुण, कुंकण, कुक्कुट, सिंगरीटी, नन्दावर्त्त, बिच्छू, डोला, भृगरिटी (झिंगुर), विरली, अक्षिवेधक (आँख फोड़ा), अक्षिल, माहल, अक्षिरोड़क, विचित्र, चित्रपत्रक (रंग बिरंगी तितलियाँ), उपधिजलक, जलकारी, नीनिक - नीचक और तंबक - ताम्रक आदि इस प्रकार और भी ये चतुरिन्द्रिय जीव अनेक प्रकार के हैं वे सब लोक के एक देश में व्याप्त हैं किन्तु सर्वत्र नहीं कहे गये हैं। विवेचन - इन नामों में से कितनेक प्रसिद्ध नाम हैं, कितनेक अप्रसिद्ध नाम हैं। संतई पप्प णाइया, अपजवसिया वि य। ठिइं पडुच्च साइया, सपजवसिया वि य॥१५१॥ भावार्थ - प्रवाह की अपेक्षा चतुरिन्द्रिय जीव अनादि और अपर्यवसित अनन्त भी हैं और स्थिति की अपेक्षा सादि और सपर्यवसित - सान्त भी हैं। छच्चेव य मासा उ, उक्कोसेण वियाहिया। चउरिदिय आउठिई, अंतोमुहत्तं जहणिया॥१५२॥ कठिन शब्दार्थ - छच्चेव - छह, मासा - महीने की। भावार्थ - चतुरिन्द्रिय जीवों की उत्कृष्ट आयु - स्थिति छह महीने की और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की कही गई है। संखिजकालमुक्कोसं, अंतोमुहत्तं जहणियं। चउरिदिय कायठिई, तं कायं तु अमुंचओ॥१५३॥ भावार्थ - उस काया को न छोड़ने वाले चतुरिन्द्रिय जीवों की उत्कृष्ट कायस्थिति संख्यात काल (संख्यात हजारों वर्ष) और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है। 'अणंतकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहण्णयं। विजढम्मि सए काए, अंतरं च वियाहियं ॥१५४॥ भावार्थ - अपनी काया को छोड़ने पर चतुरिन्द्रिय जीवों का उत्कृष्ट अन्तर, अनन्त काल का है और जघन्य अन्तर्मुहूर्त का है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450