Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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उत्तराध्ययन सूत्र - छतीसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
विवेचन - यह गाथा बहुत सी प्रतियों में नहीं है, किसी प्रति में है। इसलिए यहां दे दी गई है। गाथा नं० २२३ में 'असुरिंदवजेत्ताणं' शब्द दिया है जिसकी टीका करते हुए शान्त्याचार्य ने लिखा है कि - 'यहाँ जो उत्कृष्ट स्थिति बताई है वह एक सागरोपम की केवल चमरेन्द्र की ही है और एक सागरोपम से अधिक की स्थिति यह केवल बलीन्द्र की ही समझना चाहिए। क्योंकि उत्कृष्ट स्थिति इन्द्रों की होती है। ऐसा ही अभिप्राय तत्त्वार्थ सूत्र में बताया गया है किन्तु पण्णवणा सूत्र के चौथे स्थिति पद को देखते हुए स्पष्ट होता है कि - इन्द्र की तरह सामानिक आदि देवों में भी उत्कृष्ट स्थिति इन्द्र के बराबर हो सकती है। निष्कर्ष यह है कि - सभी इन्द्रों की स्थिति उत्कृष्ट ही होती है। जघन्य या मध्यम स्थिति में इन्द्रं उत्पन्न नहीं होते हैं। 'उत्कृष्ट स्थिति इन्द्रों की ही होती, दूसरों की नहीं' यह बात नहीं है। दूसरे देवों की भी इन्द्र के समान उत्कृष्ट स्थिति हो सकती है।
पलिओवममेगं तु, उक्कोसेण ठिई भवे। वंतराणं जहण्णेणं, दस वाससहस्सिया॥२२४॥
भावार्थ - व्यंतर देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट एक पल्योपम की होती है।
पलिओवममेगं तु, वासलक्खेण साहियं। - पलिओवमट्ठभागो, जोइसेसु जहण्णिया॥२२५॥ ।
भावार्थ - ज्योतिषी देवों की जघन्य स्थिति पल्योपम के आठवें भाग की और उत्कृष्ट स्थिति वर्षलक्ष साधिक - लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम की है।
दो चेव सागराइं, उक्कोसेण वियाहिया। सोहम्मम्मि जहण्णेणं, एगं च पलिओवमं॥२२६॥
भावार्थ - सौधर्म नामक पहले देवलोक में देवों की जघन्य स्थिति एक पल्योपम है और उत्कृष्ट स्थिति दो सागरोपम की कही गई है।
सागरा साहिया दुण्णि, उक्कोसेण वियाहिया। ईसाणम्मि जहण्णेणं, साहियं पलिओवमं ॥२२७॥ कठिन शब्दार्थ - साहिया दुण्णि सागरा - कुछ अधिक दो सागरोपम।
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