Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 442
________________ जीवाजीव विभक्ति - समाधिमरण में बाधक तत्त्व ४१७ 000000GOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOG0000000000000000 सहित तप कहलाता है। क्योंकि पहले आयंबिल का अन्तिम कोण और दूसरे आयंबिल का प्रारम्भ कोण (कोटी) मिल जाते हैं इसलिए यह तप कोटी सहित तप कहलाता है। कोटी सहित तप की दूसरी तरह से भी व्याख्या मिलती है - जैसे कि - पहले दिन आयम्बिल करके दूसरे दिन कोई दूसरा तप करे फिर तीसरे दिन फिर आयम्बिल करे। यह कोटी सहित तप कहलाता है। उपरोक्त दोनों अर्थों को बतलाने वाली गाथा इस प्रकार हैं ‘पट्ठवणओ य दिवसो पच्चक्खाणस्स णिट्ठवणओ य। जहियं समिति दुण्णि उ तं भण्णइ कोडिसहियं तु॥१॥ (प्रस्थापको दिवसः प्रत्याख्यानस्थ निष्ठापकश्च। यत्र समितः द्वौ तु तद्भण्यते कोटीसहित मेव॥१॥) संलेखना - संथारा की विधि - उत्कृष्ट संलेखना बारह वर्ष की है उसके तीन विभाग करने हैं - प्रत्येक विभाग ४-४ वर्ष का हो। प्रथम चार वर्ष में विगयों का त्याग करे, दूसरे चार वर्षों में उपवास, बेला, तेला, चोला आदि तप करे, पारणे के दिन कल्पनीय वस्तुएं ले। तीसरे चार वर्ष में दो वर्ष तक लगातार एकान्तर तप करे, पारणा में आयम्बिल करे। तत्पश्चात् ११वें वर्ष में ६ माह तक तेला, चोला आदि कठोर तप न करे, फिर दूसरे ६ माह में नियम से बेला, तेला, चोला आदि उत्कृष्ट तप करे। इस ग्यारहवें वर्ष में थोड़े ही (परिमित) आयंबिल करे, फिर बारहवें वर्ष में लगातार ही आयंबिल करे जो कि कोटीसहित हो। बाद में एक माह या पन्द्रह दिन (एक पक्ष) पहले से ही विधि सहित भक्त प्रत्याख्यान करे यानी चारों आहार का त्याग कर संथारा करे और अंत में क्षमायाचना करके अंतिम आराधना करे। यह संलेखनासंथारा की विधि है। समाधिमरण में बाधक तत्त्व कंदप्पमाभिओगं, किब्विसियं मोहमासुरत्तं च। एयाओ दुग्गईओ, मरणम्मि विराहिया होंति॥२६२॥ कठिन शब्दार्थ - कंदप्पं - कान्दी, आभिओगं - आभियोगी, किव्वसियं - किल्विषिकी, मोहं - मोह, आसुरत्तं - आसुरी, दुग्गईओ - दुर्गति रूप, विराहिया - विराधक, होंति - होती है। भावार्थ - कन्दर्पभावना, आभियोगिकी भावना, किल्विषी भावना, मोहभावना और आसुरी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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