Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 443
________________ ४१८ उत्तराध्ययन सूत्र - छतीसवाँ अध्ययन 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावना, ये भावनाएं दुर्गति की हेतुभूत और मरण के समय इन भावनाओं से जीव विराधक हो जाते हैं। बोधि दुर्लभता-सुलभता मिच्छादसणरत्ता, सणियाणा हु हिंसगा। इय जे मरंति जीवा, तेसिं पुण दुल्लहा बोही॥२६३॥ कठिन शब्दार्थ - मिच्छादसणरत्ता - मिथ्यादर्शन में अनुरक्त, सणियाणा - निदान सहित, हिंसगा - हिंसक, मरंति - मरते हैं, दुल्लहा - दुर्लभ, बोही - बोधि। । । . भावार्थ - जो जीव मिथ्यादर्शन में अनुरक्त हैं, निदान सहित क्रियानुष्ठान करते हैं और . जो हिंसा में प्रवृत्त हैं, इस प्रकार जो जीव मरते हैं उनको पुनः फिर बोधि (सम्यक्त्व) की प्राप्ति होना अत्यन्त दुर्लभ है। सम्मइंसणरत्ता, अणियाणा सुक्कलेसमोगाढा। इय जे मरंति जीवा, तेसिं सुलहा भवे बोही॥२६४॥ कठिन शब्दार्थ - सम्मइंसणरत्ता - सम्यग्दर्शन में अनुरक्त, अणियाणा - अनिदाननिदान रहित, सुक्कलेसमोगाढा - शुक्ललेश्या में अवगाढ (निमग्न), सुलहा - सुलभ। . भावार्थ - सम्यग्दर्शन में अनुरक्त, निदान-रहित क्रियानुष्ठान करने वाले, शुक्ललेश्या को प्राप्त, इस प्रकार जो जीव मरते हैं उनको परलोक में बोधि (सम्यक्त्व) की प्राप्ति सुलभ होती है। मिच्छादसणरत्ता, सणियाणा कण्हलेसमोगाढा। इय जे मरंति जीवा, तेसिं पुण दुल्लहा बोही॥२६५॥ कठिन शब्दार्थ - कण्हलेसमोगाढा - कृष्णलेश्या को प्राप्त हुए। भावार्थ - मिथ्यादर्शन में अनुरक्त, निदान-सहित क्रियानुष्ठान करने वाले, कृष्ण-लेश्या को प्राप्त हुए, इस प्रकार जो जीव मरते हैं, उनको पुनः फिर परलोक में बोधि (सम्यक्त्व) की 'प्राप्ति होना अत्यन्त दुर्लभ हो जाती है। विवेचन - कान्दी, आभियोगी, किल्विषिकी, मोही और आसुरी, ये पांच भावनाएं अप्रशस्त हैं, दुर्गति में ले जाने वाली हैं। अतः मरणकाल में साधक द्वारा इन भावनाओं का त्याग करना आवश्यक है। इसके अलावा भी समाधिमरण में जो ४ दोष बाधक हैं, वे इस प्रकार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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