Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 448
________________ जीवाजीव विभक्ति - आसुरी भावना विवेचन असुरों - परमाधार्मिक देवों की तरह क्रूरता, उग्र क्रोध, कलह, हिंसा, दूसरों को क्रूरता पूर्वक यातना दे कर प्रसन्न होना आदि दुर्गुणों से ओतप्रोत होना आसुरी भावना रूप है। संक्षेप में चार भावनाओं का स्वरूप इस प्रकार हैं - - कंदर्प भावना - कन्दर्प करना अर्थात् अट्टहास करना, जोर से बातचीत करना, कामकथा करना, काम का उपदेश देना और उसकी प्रशंसा करना, कौत्कुच्य करना (शरीर और वचन से दूसरे को हंसाने की चेष्टा करना), विस्मयोत्पादक शील स्वभाव रखना, हास्य तथा विविध विकथाओं से दूसरों को विस्मित करना कंदर्प भावना है। आभियोगिकी भावना सुख, मधुरादि रस और उपकरण आदि की ॠद्धि के लिए वशीकरणादि मंत्र अथवा यंत्र-मंत्र (गंडा, ताबीज ) करना, रक्षा के लिए भस्म, मिट्टी अथवा सूत्र से वसति आदि का परिवेष्टन रूप भूति कर्म करना आभियोगिनी भावना है। किल्विषिकी भावना ज्ञान, केवल ज्ञानी पुरुष, धर्माचार्य संघ और साधुओं का • अवर्णवाद बोलना तथा माया करना किल्विषिकी भावना है। - ४२३ 00000 आसुरी भावना निरंतर क्रोध में भरे रहना, पुष्ट कारण के बिना भूत, भविष्यत् और वर्तमान कालीन निमित्त बताना आसुरी भावना है। इन चार भावनाओं से जीव उस-उस प्रकार के देवों में उत्पन्न कराने वाले कर्म बांधता है। अर्थात् इन भावनाओं वाला जीव यदि कदाचित् देवगति प्राप्त करे तो हीन कोटि का देव होता है। मरण और उसका फल • Jain Education International सत्थगहणं विसभक्खणं च, जलणं च जलपवेसो य । अणायारभंडसेवी, जम्मणमरणाणि बंधंति ॥ २७३ ॥ कठिन शब्दार्थ - सत्थगहणं - शस्त्रग्रहण, विसभक्खणं - विष-भक्षण, जलणं अग्नि प्रवेश, जलपवेसो - जलप्रवेश, अणायारभंडवी - अनाचार का सेवन और भाण्ड कुचेष्टा, जम्मण मरणाणि जन्म मरणों का, बंधूंति - बंध करते हैं। . भावार्थ शस्त्रग्रहण करना (शस्त्र द्वारा आत्मघात करना), विषभक्षण करना, ज्वलन प्रवेश - अग्नि में प्रवेश करना, जल प्रवेश जल में डूब कर मरना और अनाचार का सेवन करने वाला (ग्रहण न करने योग्य भण्डोपकरणों का सेवन करने वाले पुरुष ) अनेक जन्म-मरण For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org

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