Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 446
________________ जीवाजीव विभक्ति - आभियोंगी भावना ४२१ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भाव प्रकट करने की चेष्टा करना और शील, स्वभाव, हास्य, विकथा आदि करना, इत्यादि चेष्टाओं से दूसरों को विस्मित करता हुआ जीव कन्दर्प भावना (कन्दर्प जाति के देवों में उत्पन्न होने की भावना) करता है। विवेचन - गाथा में आये हुए ‘सीलसहावहासविगहाहिं' शब्दों का यहाँ पर इस प्रकार अर्थ है - शील (फल-रहित प्रवृत्ति अर्थात् हास्य को उत्पन्न करने वाली चेष्टा करने की आदत)। स्वभाव - दूसरों को विस्मय उत्पन्न करने के अभिप्राय से मुखविकारादि करना। हास्यखिलखिला कर जोर से हंसना या अट्टहास करना। विकथा - दूसरों को विस्मय उत्पन्न करने वाले विविध प्रकार के वचन बोलना एवं ऐसी कथा कहना। . बृहदवृत्तिकार ने कन्दर्प के पांच लक्षण बताए हैं - १. अट्टहासपूर्वक हंसना २. गुरु आदि के साथ वक्रोक्ति या व्यंगपूर्वक खुल्लमखुल्ला बोलना, मुंहफट होना ३. कामकथा करना ४. काम का उपदेश देना और ५. काम की प्रशंसा करना। कन्दर्प से जनित भावना कान्दी कहलाती है। . आभियोगी भावना ___मंता जोगं काउं, भूइकम्मं च जे पउंजंति। सायरसइडिहेडं, अभिओगं भावणं कुणइ॥२७०॥ कठिन शब्दार्थ - मंता - मन्त्र, जोगं - योग, काउं - करके, भूइकम्मं - भूतिकर्मविभूति आदि मंत्रित करके देने का, पउंजंति - प्रयोग करते हैं, सायरस-इहि-हेउं - साता (वैषयिक सुख सुविधा), रस (स्वादिष्ट रस), समृद्धि (सिद्धि-प्रसिद्धि) के लिए, अभिओगं - आभियोगिकी। भावार्थ - जो जीव साता, रस और समृद्धि के लिए मंत्र और योग कर के भूतिकर्म का प्रयोग करते हैं, वे आभियोगिकी भावना करते हैं (आभियोगी भावना का सम्पादन करने वाला पुरुष आभियोगी देवों - सेवक जाति के देवों में उत्पन्न होता है)। विवेचन - मंत्र, तंत्र, चूर्ण, भस्म आदि का प्रयोग आभियोगी भावना का कारण है। कई आचार्य कौतुक बताना, खेल तमाशे दिखाना, जादूगरी करना, लाभालाभ संबंधी निमित्त बताना, प्रश्नाप्रश्न - स्वप्न विद्या द्वारा शुभाशुभ बताना आदि को भी आभियोगी भावना का कारण बताते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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