Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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उत्तराध्ययन सूत्र - छतीसवाँ अध्ययन 000000000000000000000OOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOO000000
विवेचन - गाथा में 'वराया' शब्द दिया है जिसका अर्थ है 'बिचारे' (गरीब)। जिनवचन से अनभिज्ञ जीव मिथ्यात्वी होते हैं, वे 'बिचारे' हैं। अनुकम्पा दया करने के योग्य हैं। जब तक उनका मिथ्यात्व नहीं छूटता तब तक वे संसार में परिभ्रमण करते रहेंगे।
आलोचना श्रवण के योग्य बहुआगम-विण्णाणा, समाहिउप्पायगा य गुणगाही। एएणं कारणेणं, अरिहा आलोयणं सोउं॥२६॥
कठिन शब्दार्थ - बहुआगम-विण्णाणा - बहुत से आगमों के विज्ञाता, समाहिउप्पायगासमाधि - चित्त में स्वस्थता उत्पन्न करने वाले, गुणगाही - गुणग्राही, अरिहा - योग्य, आलोयणं- आलोचना, सोउं - सुनने के।
भावार्थ - अपने दोषों की आलोचना कैसे ज्ञानी पुरुषों के पास करनी चाहिए, उनके गुण बतलाये जाते हैं - जो बहुत से शास्त्रों के एवं उनके रहस्यों के जानकार हों, जो देश-कालादि की अपेक्षा मधुर वचनों से समाधि उत्पन्न करने वाले हों और जो गुणग्राही हों, इन कारणों से उपरोक्त गुणों को धारण करने वाले आचार्य आदि ही आलोचना सुनने के योग्य हैं।
विवेचन - प्रस्तुत गाथा में बताया गया है कि तीन मुख्य गुणों का धारक ही आलोचना श्रवण के योग्य गुरु हो सकता है - १. जो अंग-उपांग आदि आगमों का विशिष्ट ज्ञाता हो २. जो देश, काल पात्र, आशय आदि के विशेष ज्ञान से आलोचनाकर्ता के चित्त में मधुर भाषण आदि द्वारा समाधि उत्पन्न करने वाला हो और ३. जो गुणग्राही गंभीर आशय साधक हो।
कान्दी भावना . कंदप्पकुक्कुयाई, तह सीलसहावहासविगहाहिं। विम्हावेंतो य परं, कंदप्पं भावणं कुणइ॥२६६ ॥
कठिन शब्दार्थ - कंदप्पं - कन्दर्प - कामप्रधान चर्चा, कुक्कुयाई - कौत्कुच्यहास्योत्पादक कुचेष्टाएं, सीलसहावहासविगहाहिं - शील, स्वभाव, हास्य और विकथाओं से, गरं - दूसरों को, विम्हावेंतो - विस्मित करता हुआ, कंदप्पं भावणं - कान्दी भावना।
___ भावार्थ - कन्दर्प - हास्य और विषय-विकार उत्पन्न करने वाली बातें कहना, कौक्रुच्य (कौत्कुच्य) - भांड के समान दूसरों को हंसाने वाले वचन बोलना एवं मुख-नेत्रादि द्वारा विकार
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