Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 438
________________ जीवाजीव विभक्ति - कल्पातीत के भेद 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 कठिन शब्दार्थ - जहण्णुक्कोसिया - जघन्य और उत्कृष्ट। भावार्थ - देवों की जो जघन्य और उत्कृष्ट आयु-स्थिति कही गई है वही उनकी जघन्य और उत्कृष्ट कायस्थिति होती है। विवेचन - एक जीव जिस गति और जिस काया में है उसमें मर कर उसी में वापिस उत्पन्न होता रहे उसे 'काय - स्थिति' कहते हैं। देव मर कर दूसरे भव में देव नहीं होता है। इसलिए देवों की कायस्थिति नहीं बनती है। इसी प्रकार नैरयिक जीवों में भी समझनी चाहिए। इसलिए शास्त्रकार ने नैरयिक और देवों की भवस्थिति को ही कायस्थिति कह दिया है। अणंतकालमुक्कोसं, अंतोमुहत्तं जहण्णय। विजढम्मि सए काए, देवाणं हुज्ज अंतरं ।।२५०॥ भावार्थ - अपनी काया को छोड़ देने पर देवों का पुनः उन्हीं में आगमन का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्त काल का होता है। अणंतकालमुक्कोसं, वासपुहत्तं जहण्णयं। आणयाईणं देवाणं, गेविज्जाणं तु अंतरं॥२५१॥ भावार्थ - आणत आदि (आणत, प्राणत, आरण और अच्युत) देवलोकों के देवों का और नव-प्रैवेयक देवों का जघन्य अन्तर पृथक्त्व वर्ष का है और उत्कृष्ट अनन्तकाल का है। संखेज्जसागरुक्कोसं, वासपुहत्तं जहण्णयं। अणुत्तराणं देवाणं, अंतरेयं वियाहियं ॥२५२॥ कठिन शब्दार्थ - संखेज्ज सागर - संख्यात सागरोपम, वासपुहत्तं - पृथक्त्व वर्ष। भावार्थ - विजय, वैयजंत, जयन्त और अपराजित, इन चार अनुत्तर-विमानों में उत्पन्न होने वाले देवों का जघन्य अन्तर पृथक्त्व वर्ष और उत्कृष्ट संख्यात सागरोपमों का कहा गया है। - विवेचन - सर्वार्थसिद्ध विमानवासी देव एक भवावतारी होते हैं, अतः उनका अन्तर नहीं होता। सर्वार्थ सिद्ध के देव ‘लवसप्तम' कहलाते हैं। सात लव जितना आयुष्य यदि उनका मनुष्य भव में अधिक होता तो वे उसी भव में मोक्ष चले जाते किन्तु इतना आयुष्य कम होने के कारण वे सर्वार्थ सिद्ध में जाते हैं। वहाँ का आयुष्य पूरा करके मनुष्य भव में आते हैं और यहाँ से संयम लेकर मोक्ष चले जाते हैं। इसलिए वे एक भवावतारी हैं। नोट - उपरोक्त दो गाथाएं कुछ प्रतियों में हैं कुछ में नहीं है। . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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