Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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उत्तराध्ययन सूत्र - छतीसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
एएसिं वण्णओ चेव, गंधओ रस-फासओ। संठाणादेसओ वावि, विहाणाइं सहस्ससो॥२५३॥
भावार्थ - वर्ण से, गन्ध से, रस से, स्पर्श से और संस्थान की अपेक्षा भी इनके हजारों भेद हो जाते हैं।
उपसंहार संसारत्था य सिद्धा य, इय जीवा वियाहिया। रूविणो चेवारूवी य, अजीवा दुविहा वि य॥२५४॥
भावार्थ - संसारस्थ - संसारी और सिद्ध, इस प्रकार जीवों के दो भेद तथा अजीवों के रूपी और अरूपी, ये दो भेद कहे गये हैं।
श्वमण वर्ग का कर्तव्य इय जीवमजीवे य, सोच्चा सद्दहिऊण य। सव्वणयाणमणुमए, रमेज्ज संजमे मुणी॥२५५॥
कठिन शब्दार्थ - सोच्चा - सुनकर, सद्दहिऊण - श्रद्धा करके, सव्वणयाणमणुमए सर्व नयों से अनुमत, रमेज्ज - रमण करे।
भावार्थ - इस प्रकार जीव और अजीव के स्वरूप को सुन कर और उन पर दृढ़ श्रद्धा करके मुनि सर्व नयों से अनुमत (सम्यग्ज्ञान दर्शन युक्त) संयम में रमण करे।
विवेचन - प्रस्तुत गाथा में जीवाजीव विभक्ति का उपसंहार करते हुए आगमकार ने साधक को प्रेरणा दी है कि जीव और अजीव के विभाग को सम्यक् प्रकार से सुन कर, उस पर दृढ़ श्रद्धा करे यानी भगवान् ने जैसा कहा है वह सब सत्य है, निःशंक है। तत्पश्चात् ज्ञान नय और क्रिया नय के अंतर्गत रहे हुए नैगम आदि सर्व नय अनुमत संयम - चारित्र में रमण करे।
अंतिम साधना - संलेखना तओ बहणि वासाणि, सामण्णमणपालिया। इमेण कम्मजोगेण, अप्पाणं संलिहे मुणी॥२५६॥
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