Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 437
________________ उत्तराध्ययन सूत्र - छतीसवाँ अध्ययन भावार्थ - सातवें ग्रैवेयक में देवों की जघन्य स्थिति अट्ठाईस सागरोपम की और उत्कृष्ट उनतीस सागरोपम की होती है। तसं तु सागराई, उक्कोसेण ठिई भवे । - अट्ठमम्मि जहण्णेणं, सागरा अउणतीसई ॥ २४५ ॥ भावार्थ - आठवें ग्रैवेयक में देवों की जघन्य स्थिति उनतीस सागरोपम की और उत्कृष्ट स्थिति तीस सागरोपम की होती है। ४१२ सागरा इक्कतीसं तु, उक्कोसेण ठिई भवे । णवमम्मि जहणणेणं, तीसई सागरोवमा ॥ २४६ ॥ भावार्थ - नौवें ग्रैवेयक में देवों की जघन्य स्थिति तीस सागरोपम की और उत्कृष्ट स्थिति इकत्तीस सागरोपम की होती है। तेत्तीसं सागराई, उक्कोसेण ठिई भवे । चउसुं पि विजयाईसु, जहणणेणेक्कतीसई ॥ २४७॥ भावार्थ - विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित, इन चारों अनुत्तर विमानवासी देवों की जघन्य स्थिति इकत्तीस सागरोपम की और उत्कृष्ट स्थिति तेत्तीस सागरोपम की होती है। अजहण्णमणुक्कोसा, तेत्तीसं सागरोवमा । महाविमाणे सव्वट्टे, ठिई एसा वियाहिया ॥ २४८ ॥ कठिन शब्दार्थ - अजहण्णमणुक्कोसा - अजघन्य - अनुत्कृष्ट । भावार्थ - सर्वार्थसिद्ध महाविमान में देवों की अजघन्य - अनुत्कृष्ट स्थिति तेत्तीस सागरोपम की होती है, ऐसा कहा गया है। विवेचन - सर्वार्थ सिद्ध विमान के सब देवों की स्थिति तेतीस सागरोपम की ही होती है। इसलिए वहाँ जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति नहीं बतलाई गई है। इसीलिए गाथा में 'अजहण्णमणुक्कोसा' यह शब्द दिया है इसका अर्थ होता है 'अजघन्य अनुत्कृष्ट' । एक ही स्थिति होने से जघन्य भी नहीं है और उत्कृष्ट भी नहीं है। जा चेव उ आउठिई, देवाणं तु वियाहिया । सा तेसिं कायठिई, जहण्णुक्कोसिया भवे ॥ २४६ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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