Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 412
________________ जीवाजीव विभक्ति - नैरयिकों का वर्णन ३८७ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 ३. बालुकाप्रभा - बालू रेत के समान भूमि की बहुलता। ४. पंक प्रभा - पंक (कीचड़) की बहुलता। ५. धूमप्रभा - धूएं की बहुलता। ६. तमःप्रभा - अंधकार की बहुलता। ७. तमस्तमप्रभा - प्रगाढ अंधकार की बहुलता। दूसरी नरक से सातवीं नरक तक 'प्रभा' शब्द का अर्थ 'बहुलता' समझना चाहिए। घम्मा वंसगा सिला, तहा अंजणा रिट्ठगा। मघा माधवई चेव, णारया य वियाहिया॥१५६॥ रयणाइगोत्तओ चेव, तहा घम्माइ णामओ। . इइ रइया एए, सत्तहा परिकित्तिया॥१६०॥* कठिन शब्दार्थ - घम्मा - घम्मा, वंसगा - वंशा, सिला - शिला, अंजणा - अंजणा, रिट्ठगा - रिष्ठा, मघा - मघा, माघवई - माघवती, रयणाइ - रत्नप्रभा आदि, गोत्तओ - गोत्र, घम्माइ - घम्मा आदि, णामओ - नाम। भावार्थ - घम्मा, वंशा, शिला, अंजणा, रिष्ठा, मघा और माघवती, ये सात नरकों के नाम कहे गये हैं। रत्नप्रभा आदि तो नरकों के गोत्र हैं और घम्मा आदि नरकों के नाम हैं। इस प्रकार ये सात प्रकार के नैरयिक कहे गये हैं। लोगस्स एगदेसम्मि, ते सव्वे उ वियाहिया। इत्तो कालविभागं तु, तेसिं वुच्छं चउव्विहं॥ १६१॥ भावार्थ - वे सब लोक के एक देश में कहे गये हैं, अब इसके आगे उनका चार प्रकार का कालविभाग कहूँगा। संतई पप्पणाइया, अपज्जवसिया वि य। ठिई पडुच्च साइया, सपज्जवसिया य॥ १६२॥ भावार्थ - प्रवाह की अपेक्षा नैरयिक जीव अनादि और अपर्यवसित - अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा सादि और सपर्यवसित - सान्त हैं। * ये दो गाथाएं किन्हीं-किन्हीं प्रतियों में है इसलिए उपयोगी समझ कर यहाँ रख दी गयी है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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