Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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उत्तराध्ययन सूत्र - उनतीसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 __कठिन शब्दार्थ - दंसणसंपण्णयाए - दर्शन सम्पन्नता से, भवमिच्छत्तछेयणं - संसार के हेतुभूत मिथ्यात्व का छेदन, परं - उत्तरकाल में, ण विज्झायइ - बुझता नहीं, अणुत्तरेणं णाणदंसणेणं - अनुत्तर ज्ञान दर्शन से, संजोएमाणे - संयोजित करता हुआ, सम्मं - सम्यक् प्रकार से, भावेमाणे - भावित करता हुआ, विहरइ - विचरण करता है।
भावार्थ - उत्तर - दर्शन-सम्पन्नता से जीव भवभ्रमण के कारण मिथ्यात्व का छेदन-नाश कर देता (क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता) है फिर आगामी काल में उसका सम्यक्त्व रूपी दीपक बुझता नहीं है किन्तु उस सम्यक्त्व के प्रकाश से युक्त होता हुआ जीव अनुत्तरप्रधान ज्ञान-दर्शन (केवलज्ञान-केवलदर्शन) से अपनी आत्मा को संयुक्त करता हुआ और सम्यक् प्रकार से भावना भाता हुआ विचरता है।
विवेचन - यहां दर्शन-सम्पन्नता से आशय है - क्षायोपशमिक सम्यक्त्व से युक्त होना। ऐसा व्यक्ति क्षायिक समकित को प्राप्त कर लेता है। इसकी प्राप्ति से जीव जन्म-मरण परम्परा के कारणभूत मिथ्यात्व का सर्वथा नाश कर देता है फिर उसका ज्ञान दर्शन संबंधी आलोक बुझता नहीं, वह केवलज्ञान केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है।
यदि पहले आयुष्य नहीं बंधा हो ऐसे जीव को क्षायिक समकित प्राप्त हुई हो तो वह जीव उसी भव में मोक्ष चला जाता है। यदि आयुष्य (देवता नारकी) बंध गया हो तो तीसरे भव में मोक्ष चला जाता है। यदि तीस अकर्मभूमि के मनुष्य (युगलिक) का अथवा स्थलचर तिर्यंच युगलिक का आयुष्य बंध गया हो तो चौथे भव में मोक्ष चला जाता है। क्योंकि युगलिक मरकर देवगति में ही जाता है। देव मरकर, मनुष्य होकर मोक्ष में चला जाता है। इस प्रकार जिस भव में क्षायिक समकित प्राप्त हुई वह पहला भव, दूसरा युगलिक का भव, तीसरा देव का भव और मनुष्य का चौथा भव। इस प्रकार चार भव होते हैं।
६१. चारित्र सम्पन्नता चरित्त-संपण्णयाए णं भंते! जीवे किं जणयड? भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! चारित्र-सम्पन्नता से जीव को क्या लाभ होता है?
चरित्त-संपण्णयाए णं सेलेसीभावं जणयइ, सेलेसिं पडिवण्णे य अणगारे चत्तारि केवलिकम्मंसे खवेइ, तओ पच्छा सिज्झाइ बुज्झइ मुच्चइ परिणिव्यायइ सव्वदुक्खाणमंतं करेइ॥६१॥
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