Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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उत्तराध्ययन सूत्र - छतीसवाँ अध्ययन 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 सण्णिया - ज्ञान-दर्शनं सहित, अउलं - अतुल, सुहं .. सुख को, संपत्ता - प्राप्त, उवमा - उपमा, णत्थि - नहीं। ___ भावार्थ - वे सिद्ध कैसे हैं - सिद्ध जीव अरूपी, जीव प्रदेशों से सघन, ज्ञान-दर्शन सहित हैं और ऐसे अतुल सुख को प्राप्त हुए हैं, जिसकी उपमा नहीं दी जा सकती अर्थात् सिद्ध भगवान् ऐसे अनन्त आत्मिक सुख युक्त हैं कि जिसकी उपमा संसार के किसी भी पदार्थ से नहीं दी जा सकती।
लोगेगदेसे ते सव्वे, णाणदंसण-सण्णिया। - संसारपारणित्थिण्णा, सिद्धिं वरगई गया॥६॥
कठिन शब्दार्थ - लोगेगदेसे - लोक के एक देश में, णाणदंसणसण्णिया - ज्ञान, दर्शन सञ्झिता - ज्ञान दर्शन सहित, संसारपारणित्थिण्णा - संसार के पार पहुंचे हुए। .
भावार्थ - वे सभी सिद्ध लोक के एक देश (लोक के अग्रभाग) में स्थित हैं, ज्ञान-दर्शन सहित हैं, संसार के पार पहुँचे हुए हैं और सिद्धि रूप वरगति - श्रेष्ठ गति को प्राप्त हुए हैं। .
विवेचन - प्रस्तुत गाथाओं (क्र. ४६ से ६८ तक) में सिद्ध जीवों का स्वरूप दर्शाया गया है।
गाथा क्रं. ५६ में सिद्ध विषयक पूछे गये चार प्रश्नों के उत्तरों का आशय क्रमशः इस प्रकार है -
१. कर्ममुक्त जीव धर्मास्तिकाय द्वारा मनुष्य लोक से ऊर्ध्व गमन करते हुए लोक के अन्त तक यानी अलोक के छोर पर जा कर रुक जाते हैं अर्थात् उनकी गति वहां तक ही होगी क्योंकि आगे अलोक में धर्मास्तिकायादि नहीं हैं।
२. वे लोक के अन्त भाग में जाकर प्रतिष्ठित (स्थिर) हो जाते हैं। ३. सिद्ध होने वाली आत्मा शरीर-त्याग इसी मनुष्य लोक में ही करती है। ४. लोक के अग्रभाग में सिद्धालय है, वही वे सिद्धि गति को प्राप्त होते हैं।
संसारी जीवों का स्वरूप संसारत्था उ जे जीवा, दुविहा ते वियाहिया। तसा य थावरा चेव, थावरा तिविहा तहिं॥६६॥ कठिन शब्दार्थ - संसारत्था - संसारस्थ-संसारी, तसा - त्रस, थावरा - स्थावर ।
भावार्थ - संसारस्थ-संसारी जो जीव हैं, वे दो प्रकार के कहे गये हैं - त्रस और स्थावर उनमें स्थावर जीव तीन प्रकार के हैं।
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