Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जीवाजीव विभक्ति - तीन प्रकार के त्रस
३७५ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 जीव को वापिस वनस्पतिकाय में आना ही पड़ेगा। इसलिए वनस्पतिकाय का अन्तर असंख्यात काल ही कहा है, अनन्तकाल नहीं।
एएसिं वण्णओ चेव, गंधओ रस-फासओ। संठाणादेसओ वावि, विहाणाइं सहस्ससो॥१०६॥ कठिन शब्दार्थ - सहस्ससो - सहस्र, विहाणाई - भेद।
भावार्थ - इन वनस्पतिकाय के जीवों के वर्ण से, गंध से, रस से, स्पर्श से और संस्थान की अपेक्षा से भी सहस्रश-हजारों भेद होते हैं।
तीन प्रकार के वस इच्चेए थावरा तिविहा, समासेण वियाहिया। इत्तो उ तसे तिविहे, वुच्छामि अणुपुव्वसो॥१०७॥
भावार्थ - इस प्रकार इन तीन प्रकार के स्थावर जीवों का संक्षेप से वर्णन किया गया है और अब इसके आगे तीन प्रकार के त्रस जीवों का अनुक्रम से वर्णन करूँगा।
तेऊ वाऊ य बोधव्वा, उराला य तसा तहा।
इच्चेए तसा तिविहा, तेसिं भेए सुणेह मे॥१०८॥ . - भावार्थ - तेउकाय (अग्निकाय) वायुकाय और प्रधान त्रस, इस प्रकार ये तीन प्रकार के त्रस जीव हैं। उनके भेदों को मुझ से सुनो। - विवेचन - इस गाथा में त्रस के तीन भेद कहे हैं - १. अग्नि रूप त्रस २. वायु रूप त्रस ३. उदार त्रस। अग्निकार्य और वायुकाय के स्थावर नाम कर्म का उदय होने से स्थावर है।
प्रश्न - फिर इस गाथा में उनको त्रस क्यों कहा गया है?
उत्तर - त्रस के दो भेद हैं - १. गति त्रस और २. लब्धि त्रस। अग्नि लकड़ियों को जलाती हुई अपने मूल औदारिक आदि तीन शरीरों के साथ जीवित अवस्था में स्वतः आगे बढ़ती जाती है, इसलिए गति की अपेक्षा उसे गतित्रस माना है। वायु भी अपने शरीरों के साथ जीवित अवस्था में पूर्वादि दिशाओं में स्वतः गति करती रहती है। इसलिए गति की अपेक्षा इसको भी गति त्रस माना है। पृथ्वीकाय, अपकाय एवं वनस्पतिकाय में जीवित अवस्था में अपने शरीरों के साथ अपने स्थान से दूसरे स्थान में जाने रूप गति नहीं होती है। थोड़ा-सा भी दूर जाना हो तो जीवों के काल करने पर ही दूसरे रूप में उत्पत्ति होती है, स्वप्रयोग से नहीं। वायु आदि पर प्रयोग से तो गति कर सकती है, उस गति की यहाँ विवक्षा नहीं की गयी है।
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