Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जीवाजीव विभक्ति - तेजस्काय का स्वरूप
होता है इसलिए लाउडस्पीकर में बोलना मुनियों को नहीं कल्पता है। लाउडस्पीकर में बोलना मुनि मर्यादा को भंग करना है। अपने व्रतों में दोष लगा कर जनता के उपकार के लिए लाउडस्पीकर में बोलना भगवान् की आज्ञा नहीं है । दशवैकालिक सूत्र के चौथे अध्ययन में भी बिजली को सचित्त बताया है। पूज्य आचार्य श्री आत्मारामजी म. सा. ने भी अपने दशवैकालिक सूत्र में ऐसा ही लिखा है ।
सुहुमा सव्वलोगम्मि, लोगदेसे य बायरा ।
इत्तो कालविभागं तु, तेसिं वुच्छं चउव्विहं ॥ ११२ ॥
भावार्थ सूक्ष्म अग्निकाय के जीव सर्व लोक में व्याप्त हैं और बादर जीव लोक के एक देश में व्याप्त हैं। अब आगे उन जीवों का चार प्रकार का कालविभाग बताऊँगा । संतई पप्पणाइया, अपज्जवसिया विय।
ठिइं पडुच्च साइया, सपज्जवसिया वि य ॥ ११३॥
भावार्थ - अग्निकाय के जीव, परम्परा की अपेक्षा अनादि और अपर्यवसित
हैं। स्थिति की अपेक्षा सादि और सपर्यवसित - सान्त भी हैं ।
तिण्णेव अहोरत्ता, उक्कोसेण वियाहिया ।
आउठिई तेऊणं, अंतोमुहुत्तं जहण्णिया ॥११४॥
कठिन शब्दार्थ - तिण्णेव तीन, अहोरत्ता - अहोरात्र, आऊठिई - आयु स्थिति,
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तेऊणं - अग्निकाय के जीवों की ।
भावार्थ - अग्निकाय के जीवों की उत्कृष्ट आयु-स्थिति तीन अहोरात्र ( दिन-रात ) और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की कही गई हैं।
असंखकालमुक्कोसा, अंतोमुहत्तं जहण्णिया ।
कायठिई तेऊणं, तं कायं तु अमुंचओ ॥ ११५ ॥
भावार्थ उस अग्निकाय को न छोड़ते हुए अग्निकाय के जीवों की कायस्थिति उत्कृष्ट असंख्यात काल की और जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त की है।
अणंतकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहण्णयं ।
विजढम्मि सए काए, तेऊ जीवाण अंतरं ॥ ११६ ॥
भावार्थ अपनी काया को छोड़ देने पर अग्निकाय के जीवों का, उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल का और जघन्य अन्तर्मुहूर्त का है।
अनन्त भी
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