Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 396
________________ ३७१ जीवाजीव विभक्ति - वनस्पतिकाय का स्वरूप 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 और अपर्यवसित - जिसका अन्त नहीं हैं और स्थिति की अपेक्षा सादि और सपर्यवसित हैंजिसका अन्त है। सत्तेव सहस्साई, वासाणुक्कोसिया भवे। आउठिई आऊणं, अंतोमुहत्तं जहणिया॥६॥ कठिन शब्दार्थ - सत्तेव सहस्साई - सात हजार, आउठिई - आयु स्थिति, आऊणंअप्काय के जीवों की। भावार्थ - अप्काय के जीवों की आयु स्थिति (भवस्थिति), जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट सात हजार वर्ष की है। . असंखकालमुक्कोसं, अंतोमुहत्तं जहण्णयं। कायठिई आऊणं, तं कायं तु अमुंचओ॥१०॥ भावार्थ - उस अप्काय को न छोड़ने वाले अप्काय के जीवों की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट असंख्यात काल की है। विवेचन - असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी जितना काल समझना चाहिये , पृथ्वीकाय की तरह। अणंतकालमुक्कोसं, अंतोमुहत्तं जहण्णयं। विजढम्मि सए काए, आउजीवाण अंतरं॥३१॥ भावार्थ - अपनी काया छोड़ कर अन्य काय में जाने और पुनः लौट कर अप्काय के जीवों में आने का अन्तर-व्यवधान, जघन्य अन्तर्मुहूर्त का और उत्कृष्ट अनन्त काल का है। विवेचन - यहाँ असंख्यात पुद्गल परावर्तन जितने काल को अनन्त काल कहा है। अप्काय का जीव मर कर वनस्पति काय के अन्तर्गत निगोद में चला जाय तो इतना अन्तर पड़ सकता है। एएसिं वण्णओ चेव, गंधओ रस-फासओ। संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो॥१२॥ भावार्थ - इन अप्काय के जीवों के वर्ण से, गंध से, रस से, स्पर्श से और संस्थान की अपेक्षा से भी सहस्रश - हजारों विधान - भेद हो सकते हैं। . वनस्पतिकाय का स्वरूप दुविहा वणस्सई जीवा, सुहुमा बायरा तहा। पज्जत्तमपज्जत्ता, एवमेए दुहा पुणो॥३॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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