Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 388
________________ जीवाजीव विभक्ति - सिद्ध जीवों का स्वरूप ३६३ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 कठिन शब्दार्थ - उस्सेहो - उत्सेध-ऊंचाई, भवम्मि - भव में, चरिमम्मि - चरम, तिभागहीणा - तीन भाग हीन (कम), सिद्धाणोगाहणा - सिद्धों की अवगाहना,। भावार्थ - जिन जीवों की चरम-अन्तिम भव में जितनी उत्सेध-ऊँचाई होती है, उससे तीन भाग कम सिद्धों की अवगाहना होती है। विवेचन - यहाँ पर गाथा ५० में एवं उववाई सूत्र, प्रज्ञापना सूत्र पद २ में सिद्धों की अवगाहना के तीन भेद 'जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट' बताये हैं। अन्यत्र आगमों में भगवती सूत्र आदि में (शतक ६ उद्देशक ३१ - ‘सोच्चा, असोच्चा केवली' के वर्णन में) सिद्धों की अवगाहना के दो भेद - 'जघन्य, उत्कृष्ट' किये हैं। अतः अपेक्षा से अवगाहना के तीन भेद एवं दो भेद दोनों प्रकार कहे जा सकते हैं। दोनों तरह से कहना अनुचित नहीं है। तीन भेद कहते समय उसका स्पष्टीकरण कर देना चाहिए। जैसे - जघन्य अवगाहना - १ हाथ, ८ अंगुल - सामान्य केवली (२ हाथ वालों) की अपेक्षा समझना। मध्यम अवगाहना - ४ हाथ, १६ अंगुल' - सामान्य केवली की अपेक्षा मध्यम व तीर्थंकर केवली की अपेक्षा जघन्य अवगाहना समझना। उत्कृष्ट अवगाहना - ३३३ धनुष ३२ अंगुल - सभी केवलियों (सामान्य केवली व तीर्थंकर केवली) की अपेक्षा उत्कृष्ट अवगाहना समझना। निष्कर्ष यह है कि “अवगाहना के दोनों प्रकार (तीन भेद या दो भेद) आगमों में बताये हुए होने से अपेक्षा विशेष से दोनों प्रकारों से कहने में कोई बाधा नहीं है। दोनों प्रकार उचित ही है।" अतः ‘दो भेदों' को सही कहना एवं 'तीन भेदों' को गलत कहना उचित नहीं है। किसी का भी आग्रह नहीं करते हुए आगमोक्त दोनों तरीकों से अवगाहना को बताना उचित ही लगता है।" एगत्तेण साइया, अपजवसिया वि य। पुहत्तेण अणाइया, अपजवसिया वि य॥६६॥ कठिन शब्दार्थ - एगत्तेण - एक (सिद्ध) की अपेक्षा, साइया अपज्जवसिया - सादि अपर्यवसित, पुहत्तेण - पृथक्त्व बहुत से, अणाइया अपज्जवेसिया - अनादि अपर्यवसित। भावार्थ - एक सिद्ध की अपेक्षा सिद्ध सादि (आदि सहित) और अपर्यवसित - अनन्त हैं, पृथक्त्व - बहुत जीवों की अपेक्षा अनादि और अपर्यवसित - अनन्त है। अरूविणो जीवघणा, णाणदंसण-सण्णिया। अउलं सुहं संपत्ता, उवमा जस्स णत्थि उ॥१७॥ कठिन शब्दार्थ - अरूविणो - अरूपी, जीवघणा - घनरूप (सघन) जीव, णाणसण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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