Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रमादस्थान - मनोभावों के प्रति राग-द्वेष से मुक्त होने का उपाय २६१ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
भावार्थ - मन को भाव का ग्राहक (ग्रहण करने वाला) कहते हैं और भाव को मन का ग्राह्य (ग्रहण करने योग्य) कहते हैं। ज्ञानी पुरुष मनोज्ञ भाव को राग का हेतु-कारण कहते हैं और अमनोज्ञ भाव को द्वेष का हेतु-कारण कहते हैं।
भावेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं। रागाउरे कामगुणेसु गिद्धे, करेणु-मग्गावहिए व णागे॥६॥
कठिन शब्दार्थ - भावेसु - भावों में, कामगुणेसु - कामगुणों में, करेणु-मग्गावहिएहथिनी के प्रति मार्ग में आकृष्ट, णागे - नाग - हाथी।
भावार्थ - जिस प्रकार कामगुणों में गृद्ध-मूर्च्छित बना हुआ, रागातुर हाथी, हथिनी के पीछे दौड़ता हुआ पथभ्रष्ट हो कर शिकारियों द्वारा पकड़ा जाने पर दुःख पाता है, उसी प्रकार जो पुरुष भावों में तीव्र गृद्धि-आसक्ति रखता है, वह अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है।
जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं। दुदंतदोसेण सएण जंतू, ण किंचि भावं अवरुज्झइ से॥१०॥
भावार्थ - जो जीव अमनोज्ञ भाव में तीव्र द्वेष को प्राप्त होता है, वह प्राणी अपने ही दुर्दान्त(तीव्र) दोष से उसी क्षण में दुःख को प्राप्त होता है, इसमें भाव का कुछ भी अपराध-दोष नहीं है, किन्तु वह जीव अपने ही दोष से स्वयं दुःखी होता है। . एगंतरत्ते रुइरंसि भावे, अतालिसे से कुणइ पओसं।
दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, ण लिप्पड़ तेण मुणी विरागो॥१॥
भावार्थ - जो जीव रुचिर - मनोज्ञ भाव में एकान्तरक्त - अत्यन्त अनुरक्त होता है और अमनोज्ञ भाव में प्रद्वेष करता है, वह बाल-अज्ञानी जीव अत्यन्त दुःख एवं पीड़ा को प्राप्त होता है किन्तु विराग-वीतराग मुनि उस दुःख से लिप्त नहीं होता है।
भावाणुगासाणुगए य जीवे, चराचरे हिंसइ णेगरूवे। चित्तेहि ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तट्ठगुरू किलिटे॥२॥
कठिन शब्दार्थ - भावाणुगासाणुगए - भावानुगाशानुगत - भावों की आशा के पीछे चलने वाला।
भावार्थ - भावों की आशा से उसका अनुसरण करने वाला अर्थात् भावों की आसक्ति में फंसा हुआ जीव अनेक प्रकार के चराचर - त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है
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