Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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कर्मप्रकृति - कर्मों स्थितियाँ
उद्धार पल्योपम और सागरोपम से द्वीप समुद्रों की गिनती की जाती है। सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम और सागरोपम से दृष्टिवाद में द्रव्य मापे जाते हैं। सूक्ष्म क्षेत्र सागरोपम से पांच स्थावर और त्रस जीवों की गिनती की जाती है।
'समुद्र' शब्द के अनेक पर्यायवाची शब्द हैं यथा सागर, उदधि, तोयधि, नीरधि, पयोधि आदि। इनमें से इन गाथाओं में उदधि शब्द का प्रयोग किया है। जिसका प्राकृत में 'उदही' शब्द बनता है । इन गाथाओं में शास्त्रकार ने 'उदही' शब्द का प्रयोग किया है। किन्तु दूसरी जगह प्राय: बहुलता से सागरोपम शब्द का प्रयोग आता है।
यहाँ पर जीवों की कर्म स्थिति का वर्णन किया गया है इसलिए अद्धा पल्योपम और अद्धा सागरोपम का ग्रहण करना चाहिए क्योंकि यहाँ पर यही प्रकरण संगत है।
नोट गाथा नं० २० में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, अन्तराय कर्म की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की कही है, वह यथार्थ है । किन्तु इसके साथ ही वेदनीय कर्म की भी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की कह दी है। इस विषय में टीकाकार श्री शान्ताचार्य ने तो लिख दिया है कि - शास्त्रकार ने वेदनीय कर्म की भी जघन्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त की कह दी है इसका क्या अभिप्राय है, यह हमारी समझ में नहीं आया है। प्रज्ञापना सूत्र तेइसवें पद में सातावेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त की बताई है। यही बात तत्त्वार्थ सूत्र के आठवें अध्ययन में भी कही है। 'अपरा द्वादशमुहूर्त्ता वेदनीयस्य ॥ ६६ ॥
असातावेदनीय की जघन्य स्थिति एक सागरोपम के सात भागों में से तीन भाग उनमें भी पल्योपमं के असंख्यातवें भाग कम होती है।
शास्त्रकारों ने ईर्यापथिकी की सातावेदनीय की अपेक्षा वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त (दो समय) की बताई है। दो समय को जघन्य अन्तर्मुहूर्त कहा जाता है। उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त ४८ मिनट में एक समय कम का होता है।
उदही - सरिस - णामाण, सत्तरिं कोडिकोडीओ । मोहणिजस्स उक्कोसा, अंतोमुहुत्तं जहण्णिया ॥२१॥ कठिन शब्दार्थ - सत्तरिं सत्तर, मोहणिज्जस्स - मोहनीय की ।
भावार्थ मोहनीय कर्म की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम की होती है।
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