Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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उत्तराध्ययन सूत्र - पैंतीसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
भावार्थ - सब दिशाओं में शस्त्र की धारा के समान फैलने वाली और बहुत प्राणियों का नाश करने वाली अग्नि के समान शस्त्र दूसरा कोई नहीं है, इसलिए साधु कभी भी अग्नि को न जलावे, न दूसरों से जलवावे और जलाने वालों की अनुमोदना भी न करे।
विवेचन - प्रस्तुत तीन गाथाओं में साधु के लिए स्वयं आहार पानी पकाने-तैयार करने व दूसरों से करवाने का निषेध किया गया है क्योंकि आहार आदि तैयार करने में त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा होती है। जीवदया के लिए साधु रसोई बनाने और बनवाने के प्रपंच में न पड़े। रसोई बनाने में अग्नि जलाना अनिवार्य है और अग्नि से बढ़ कर कोई दूसरा तीक्ष्ण शस्त्र नहीं है। अतः शास्त्रकार ने अग्नि जलाने का निषेध किया है।
क्रय विक्रय वृत्ति का निषेध हिरण्णं जायरूवं च, मणसा वि ण पत्थए। समले? कंचणे भिक्खू, विरए कय-विक्कए॥१३॥
कठिन शब्दार्थ - हिरणं - हिरण्य-सोना, जायरूवं - जातरूप-चांदी, ण पत्थए - न चाहे, समले? कंचणे - समलोष्ट-काञ्चन - सोने और मिट्टी के ढेले को समान समझने वाला, विरए - विरत, कय-विक्कए - क्रय-विक्रय से। __ भावार्थ - मिट्टी के ढेले को और सोने को समान समझने वाला, क्रयविक्रय (खरीदने और बेचने) की क्रियाओं से विरक्त (निवृत्त) हुआ भिक्षु सोना, चांदी और धनधान्यादि परिग्रह को मन से भी न चाहे।
किणंतो कइओ होइ, विक्किणंतो य वाणिओ। कयविक्कयम्मि वéतो, भिक्खू ण भवइ तारिसो॥१४॥
कठिन शब्दार्थ - किणंतो - खरीदता हुआ, कइओ - क्रयिक, विक्किणंतो - बेचता हुआ, वाणिओ - वणिक्, कयविक्कयम्मि - क्रय-विक्रय - खरीदने बेचने में, वहृतो - प्रवृत्त होता हुआ, तारिसो - तादृश-वैसा।
भावार्थ - खरीदता हुआ खरीदने वाला (ग्राहक) होता है और बेचता हुआ वणिक् होता है। खरीदने और बेचने के कार्य में प्रवृत्ति करता हुआ साधु तादृश अर्थात् जैसा सूत्र में कहा है
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